Saturday, July 04, 2009

हमने जब भी कुछ लिखा

जाने कितने कवियों ने कवितायें लिखी;
जाने कितने कागज पर रचनायें घुटीं।
जाने कितने शब्दों की स्वरलहरी;
बन प्रपात झरने सी झर कर चली गई।

फिर भी अंजान ,अद्र्श्य !
मानव की वाहवाही में
हम खुश हो जाते,या झूठी चंद प्रशंशा में
खुद हंस कर सारे गम को सह जाते!

जब-2 जली सुहागन चंद नोटों या सिक्कों पर
तब हमनें एक रचना रच डाली ;
जब -2 बच्चे के भूखे पर आंख पडी!
कवि को मिली खुशी ;चलो एक रचना फिर मथ डाली!

एक अभागिन जब लाज वसन थी बेच रही!
हम बता कहानी उसकी;तालियां जुटाते थे!
एक भिखारिन मन्दिर के एक कोने पर खडी रही;
हम खुश होकर कविता उस पर कह जाते थे!

क्या तुझे पता नही कवि !
तू किन्हे सुनाता अपनी ये कविताये!
ये धूर्त, कुतर के स्वामी!
जनता तेरी कवितायों पर बस खुश होती है!
तुझ पर नही !
"गरीबी ,लाचारी" पर बेखौफ तालियां पिटती है!

सौ साल पूर्व लिख दी थी एक ऐसी रचना!
जिसमें भी बच्चा भूखे पेट सोता था!!
वह "क्रांतियुग" से भी पहले का था युग जिसमें!
कवि "स्र्त्री" को "देवी" का रुपक कह्ता था!

तब बन जाते थे ऐसे ही कवि!
दरबारों के "नवरत्न" प्रिय!
अब "राष्ट्रकवि" बन जाते हैं
फूल मालाऎं मिल जाती हैं।

पर लौट के फिर जब जाता है उस मदिंर में
तो वही भिखारिन त्रश होकर आंख मिलाती है!
मासूम सा बच्चा ,लिये हथौडा !
पत्थर ! और तेजी से तोडता जाता है!!!!

बस यूंही अनायास .......

पहले मैं जब सुबह उठता था

सूरज की किरणों

को पानी से धोने का

प्रयास देखता था।



हरी कोपलों पर

खुद को समेंटें हुए ओस की बूंदे

देखता था ॥



नई-2 कोपलों को

पीले हुए पत्तों के सामने

अठखेलियाँ करते हुए भी देखा ॥



समीर, जो ठंडे हुए ..

पर्वतों से आकर मेरे कानों में

कुछ फुसफुसाती थी ॥



और कुछ रंगबिरंगे फूलो पर

अदभुत सी तितलियों

को ठहरते देखा ॥



तुमको अचरज होगा ,कि मेरे

घर के आंगन में कभी मोर

कभी कोयल तो कभी सफेद

बगुले आते थे

सूखे पडे धान को चुनने ॥


और मै बालहठ में

उन्हे पकडने की नाकाम कोशिश करता ॥


अब,

न आंगन है ,न तितली हैं

न कोपल हैं ,न पीले हरे पत्ते

बस उनकी कुछ तस्वीरें,

जो बाजार में मिलती हैं

मैने अपने घर की दीवार पर

सजाने को लगा रखी हैं ॥