Thursday, January 11, 2007

उम्मीद..॥

उम्मीद
लेखक :-भ्रमर कुमार

31 दिसम्बर 2005,एक बार फिर धुंध से भरी हुई सर्द रात,कोहरे ने धरती तो कुछ इस तरह अपने आगोश में लिया कि लगा प्रकृति की सफेद रजाई ने पूरे आसमान को ढक लिया हो और उस रजाई के बाहर की यह धरती........बिना बोले सामना कर रही है कडाके की सर्दी का । हड्डियों को गला देने वाली ठंडी हवाओं को भी अपना वीभत्स रूप
आज ही दिखाना था । प्रकृति ने अपनी करवट से प्राणियों को ठहर जाने के लिए कह दिया..! लेकिन धन्य हो मनुष्य.....जिसने समय बनाया और इस समय को आदेश दिया कि कभी किसी को ठहरने मत दो।समय के उसी धुरी पर क्षण ,दिन ,महीने और साल बीते ।और आज फिर आया एक नये साल के आने का जश्न ........। तो क्या हुआ कि प्रकृति जश्न मनाने से रोक रही है। मौसम से 2-2 हाथ करने को हम शहरवासी बिल्कुल तैयार हैं...हमारे पास तेज सुर में बजता संगीत है ,रंग-बिरंगी गर्म पोशाकें है,खुशी जाहिर करने के लिए पटाखे हैं,रोशनी की जगमगाहट है ;माहौल को मदहोश करने के लिये विह्स्की के जाम और थिरकते हुए कुछ खूबसूरत इंसान । शायद अंदर से आत्मिक दुख हैं फिर भी मन तो खुश है..हमें हंसाने के लिये तरह तरह के specialist लाये गये हैं। हम दो मिलकर किसी तीसरे पर जोर-2 से हंसते हैं।

बाहर का एक इंसान अचानक से बेतुका सा प्रश्न कर बैठा

----क्या बात है भाई साहब ! बडे खुश नजर आ रहे हो ?
अचानक 30 तारीख तक चेहरे के साथ चलने वाला तनाव ,31 की रात आते ही न जाने कहाँ ,कब गायब हुआ । यह गायब हुआ है या दिखाई नही दे रहा ? या फिर हम नजर उठा कर उस तरफ देखना नहीं चाह्ते ?

----भाई साब खुश क्यो नही होंगे...नया साल जो आ रहा है।और इसी के साथ आ रही है एक आम आदमी की उम्मीद ..कि जैसे आज खुश हैं सारे साल रहें । युंही हंसते –खेलते ,नाचते गुनगुनाते वक्त बीत जाये।

और फिर अगर अगर इसी उम्मीद पर जिंदगी के कुछ पल हंसी से गुजार दिये जाये तो फिर इसकी फिक्र किसे ????


31 दिसम्बर 2006;एक बार फिर कोहरे की सर्द बूंदे कुछ ज्यादा ही सर्द हो चुकी हैं । अंधेरा इतना कि लगा ईश्वर के दिये के नीचे की कालिख यहीं किसी सतह पर जम गयी हो । निशब्द सन्नाटे के बीच कभी -2 कुत्तो के भौंखने की आवाज ,वक्त वही रात के 11 बजकर 30 मिनट का ; किसानों का एक झुरमुट कम्बल के अभाव में आग तापता हुआ ,और साथ ही कोसो दूर शहर की रोशनी की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए..

उनमें से कुछ युवा भाग्य की लकीरों को दोषी बता रहे हैं तो कुछ वृद्ध इसी को पूर्व जन्म के पापों का फल और शहर वालों के पूर्व जन्म के पुण्य का परिणाम। आंगन में जलती हुई एक मिट्टी के तेल की कुप्पी अपने पूरे सामर्थ से हवा के साथ जंग लड रही है....परंतु गांवो में हमेशा की तरह एक बार फिर पवन का प्रहार रोशनी पर भारी पडा और दिया बुझ गया ...।

दूर शहर में एक जोर के पटाखे ने गांव की एक अनपढ बुढिया को जगा दिया ..
-------“लागत है चोर आई गए....गोली दागी राहे “
बुढिया संशय भरे भाव में बोली.

----चुप्पै सोई जाओ चाची ......नया साल शुरू हुआ ताहि तो पटाखा जलो है शहर में.।
बुढिया फिर कम्बल मे लिपटकर टूटे हुए खटोले पर सो गयी ....अचानक से फिर वही पुराना सन्नाटा ,फिर वही निशब्द वातावरण ,न नये साल की कोई मुबारकबाद ,न ही खुशी का कोई माहौल । नींद न आते हुए भी मैने कम्बल के पीछे अपना पूरा चेहरा छुपा लिया।
“ऐसा ही होता है जब उम्मीदें भी जल कर खाक हो चुकी होती हैं और लोग अगले बरस की बजाये अगले जन्म का इंतजार करते हैं “