Friday, August 03, 2007

शैक्षिक आरक्षण :एक आवश्यकता

आदि के उत्थान से लेकर अनंत के गर्भ तक जिस मानवीय सभ्यता पर हमें सर्वाधिक गर्वानुभूति होती है उसी सभ्यता के निचले धरातल पर मानव द्वारा किए गये कुछ ऐसे स्वार्थ हैं जिनको समय समय पर बुद्दिजीवियों द्वारा “गलत प्रावधान” के रूप में स्वीकार किया गया ।जीवित रहने के लिए असुरक्षा की मनोवैजानिक भावना ने “जीवन और सत्ता के लिए संघर्ष:-एक आवश्यकता” के डार्विन सिद्धांत को और सुदृण किया ।

में जब समाज की स्थापना हुई तो कल्पनाशील मनुष्यों ने नये नियमों का सृजन किया।इन नियमों को स्थापित करने का मूल, समाज को एक व्यवस्था से बांधना मात्र था ,परंतु पुन: “असुरक्षा” की भावना,और सत्ता की लोलुपता ने मनुष्यों को ऐसे नियमों को बनाने के लिए विवश कर दिया जिनसे चिर काल तक एक वर्ग विशेष सुरक्षित रहे।जाति व्यवस्था,वर्ण व्यवस्था,गोरों द्वारा कालों से घृणा, पुरूष वर्ग द्वारा स्त्री जाति से स्वयं को अधिक पूर्ण मानना अपने चरम सीमा पर उस समय पहुंच गया जब प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं पर एक वर्ग द्वारा एकाधिकार होने लगा और दूसरे को उससे सदा के लिए वंचित करने का षडयंत्र ।आश्चर्य की बात यह है कि “निश्वार्थ आओ,सेवार्थ जाओ” की मूल भावना रखने वाला शैक्षिक जगत भी इससे अछूता नहीं रहा ।

भारतीय समाज में “एकलव्य” एवं “कर्ण” की पौराणिक कथाओं से लेकर डा.भीमराव अम्बेडकर के द्वारा शिक्षा के लिए किये गये संघर्ष के उदाहरण हमारे पास हैं।अगर इतिहास ,सामाजिक सुधार और राजनीतिक कदमों को एक साथ ज़ोडकर देंखे तो लगभग 1400 वर्षों के सामाजिक ढांचे में सुधार हेतु स्वयं डा.अम्बेडकर ने 10 वर्षों के आरक्षण का प्रारम्भिक प्रावधान किया ।यह एक व्यक्ति द्वारा संविधान के प्रति निष्ठा ही ठीक जिसने दस वर्षों के अन्दर एक बडे सामाजिक परिवर्तन का सपना देखा।
प्रथम दृश्टया वास्तव में कुछ बडे परिवर्तन भी हुए ।शिक्षा,नौकरी,ग्राम समाज के छोटे पदों से होते हुए दलित ,महिला और पिछ्डा समाज प्रशासन,संसद तथा राष्ट्र्पति भवन के गलियारों तक पहूंचा ।सामाजिक तथा आर्थिक समरसता बढी।परंतु इसके बाद भी प्रतिशत रूप का जब भी आंकलन किया गया ,उत्तर नकारात्मक ही रहे ।मंडल आयोग की सिफारिशे मानना सरकार की संवैधानिक मजबूरी थी ।

इस प्रकार, इससे पहले कि आरक्षण के विरोध में हम कोई मोर्चाबंदी करने के लिए निकलें,हमारे पास इसका कोई बेहतर और ठोस विकल्प अवश्य होना चाहिए। जिन लोगों को ‘आरक्षण’ दिया जाना हम पसंद नहीं करते, उन्हें संविधान के अनुसार प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए हमारे पास कौन-सा बेहतर वैकल्पिक उपाय है? भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो इसके लिए आरक्षण का ही उपाय किया गया है। यदि आप भारतीय संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखते हैं तो आपको आरक्षण के उस प्रावधान को लागू किए जाने का समर्थन करना चाहिए जिसे भारत की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार भारतीय संविधान के उपबंधों के दायरे में लागू करना चाह रही हो। यदि आपकी आस्था संविधान और लोकतंत्र में नहीं है तो फिर यह ध्यान रखिए कि आप आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का विरोध भी इसीलिए कर पा रहे हैं क्योंकि भारतीय संविधान और लोकतंत्र ने ही आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है

मैने जितने भी आरक्षण के विरोधियों को सुना है ,अधिकांशत: उनमें से पदानुक्रम’ (Hierarchy) और ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) को अपना सिद्धांत बनाते हैं ,परंतु वही लोग वर्षों के सामाजिक ,आर्थिक और मनोवैज्ञानिक अंतर को भूल जाते हैं।अगर हम समाज के साथ जुडकर देखें तो पायेंगे कि आरक्षण सिर्फ समाज को एकीकृत करनें का एक प्रयास है ,और मेरे विचार से आरक्षण के लिए संघर्ष तभी प्रारम्भ हो सकता है जब किसी राष्ट्र की सरकार के पास सुविधाओं के लिए कमियाँ होने लगी ।

आरक्षण का एक कारगर विकल्प हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सुझाया कि प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में जितनी सीटें आरक्षित की जा रही हों, कुल सीटों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ा दी जानी चाहिए ताकि गैर-आरक्षित श्रेणी के लिए पहले की तरह अवसर उपलब्ध रहें। इस सुझाव का व्यापक स्वागत हुआ। सीटों की संख्या जितनी बढ़ाई जा सके उतनी बेहतर है ताकि अधिक से अधिक लोगों को उच्च शिक्षा हासिल करने का मौका मिल सके। आदर्श स्थिति तो वह होगी जिसमें हर शिक्षार्थी को पढ़ने को मौका मिले और हर बेरोजगार को रोजगार मिले। लेकिन चूंकि प्रत्याशी अधिक होते हैं और अवसरों की उपलब्धता काफी कम होती है, इसलिए प्रतियोगिता आयोजित कराई जाती है ताकि जो सबसे योग्य हों उन्हें ही सीमित अवसरों का लाभ मिल सके। लेकिन असमान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता कदापि नहीं हो सकती। भारत में अभी तक ऐसी व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है जिसमें किसी प्रतियोगिता के आयोजन से पहले हर प्रत्याशी को उसकी तैयारी के लिए समान सुविधा और समान परिस्थिति उपलब्ध हो सके। आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में कृष्ण और सुदामा अब एक साथ नहीं पढ़ा करते । यदि आप आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करना चाहते हैं तो पहले आप ऐसी व्यवस्था विकसित कीजिए ताकि किसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले हर प्रतियोगी को समान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उपलब्ध हो सके।
आरक्षण का विरोध वही करते हैं जिन्होंने न तो हमारा समाज देखा है और न ही अवसरों की ग़ैर-बराबरी को समझने की कोशिश की है. ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है।मिसाल के तौर पर अमरीकी समाज ने जब तक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तबतक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं।

जो लोग आरक्षण को ख़ारिज करते हैं, वो तो हमेशा से सामाजिक न्याय के सवाल को भी ख़ारिज करते रहे हैं. ये वो लोग हैं जो कि हिंदुस्तान के मध्यम वर्ग को अन्य वर्गों के लिए कुछ भी छोड़ना पड़े, इस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं.। इस प्रकार से स्पष्ट है कि शिक्षा में आरक्षण वर्तमान परिदृश्य में अत्यंत महत्पूर्ण हो गया है।यह न केवल सामाजिक विघटन को रोकेगा बल्कि भविष्य में नौकरियों से आरक्षण को हटाने में महत्वपूर्ण योगदान भी प्रदान करेगा ।

Tuesday, May 08, 2007

बस एक याद

कहूँ शब्दों से क्या मै बस;
गा बैठा एक छंद ॥
दूर देश में बैठे बैठे बस
याद आया एक अनुबंध ॥

चिठ्ठी पाती न होती थी
न हो पाती थी जब बात
तभी Canteen के गुप्ता जी की
एक आती थी आवाज ॥

हम दौडे दौडे जाते थे
सुनके मम्मी की आवाज।
और Mess में गिरते थे आंसू
छलक पडते थे जज्बात ॥

कांच तोड के टोपो करना
और “खुद की मेहनत” बतलाना।
क्लास में बैठी अग्र लाइन पर
नजरें खूब घुमाना ॥

“फूल तोडना मना” लिखा हो
वहां से उसे तोड के लाना
और गुलाब की उस डंडी को;
Room-mate को पकडाना ॥

दिल के सर्किट खूब समझना
पर Tronix समझ ना आये
LAN, WAN समझा हमने तब
जब Share Folder आये

कलरव की मस्ती में
युवा मंच खूब हंसता था।
उस एक रंगमहल के आगे
सब कुछ लगता “सस्ता” था ॥

एक समोसे के छह हिस्से;
और जयसिंह की वो चाय;
और पैसे न देने पे;
पंडित की लगती “हाय”।

फिर एक दिन ऐसा आता था ;
जब खूब मार पडती थी
और होंठों पे हम सबके ;
एक हंसी रहती थी ;

क्योंकि लातों की मार के आगे
दिल का प्यार आ जाता था ॥
और दर्द ज्यादा होने पे हम सबको
गले लगाना आता था॥

आठ पचास पे सोके उठना ;
और नौ पे yes sir कहना ।
फिर दस की Class में
बची नींद को पूरी करना ॥

इस पर भी गर Teacher पकडे;
तो मुंह धोकर फिर से सोना
और नींद गर ना आये
तो फिर सपनों में खोना ॥

हंसी आती है आज जब
Boss Project Line बनाता
याद आता वो वक्त जब
CT का एक दिन रह जाता ,
और chapter सात देखकर
होश उडा करते थे ।
तब मेरे जैसे कई दोस्त ;
काजल पे मिला करते थे।

और डिनर के बाद शुरु करेंगे
हम ये सोचा करते थे
खाने के तुरंत बाद नही पढना होता है;
यूंही फिर 11 बजते थे ॥

फिर आंखो की नींद भगाने हम;
”चीची” के पास जाते थे ;
और फिर वहां उसी shed में
हम फोटोस्टेट रटते थे।

बस ऐसे ही उसी जगह से;
हम एक दिन बाबू बन बैठे।

कहने को तो बहुत है लेकिन
बक्त भागता जाता है
और खडे होकर हम सब पीछे ....तकते हैं
कभी आगे जाने वालों को .....कभी पीछे छूटने बालों को
बस एक लंबी सांस के बाद;
कलम ठहर जाती है
भीनी पलकें और मुस्कान
.......साथ साथ आती हैं ॥

Sunday, March 11, 2007

कर्म

कर्म की प्रतीक्षा में शायद जीवन नष्ट हो जाता है परन्तु इंसान को क्षमता के अनुसार कर्म नहीं मिलता । शायद वह इसे कभी नहीं ढूंढ नहीं पाता या फिर कर्म स्वंय उससे दूर भागता ।चन्दर बी.ए. पास था वो भी प्रथम श्रेणी में । क्लास में अव्वल रहता ,पिता जी साधारण से पोस्ट आफिस में क्लर्क़ थे । घर पर एक बडी बहन थी जो राजनीति से एम.ए करके पास के स्कूल में छोटे बच्चों को पढानें लगी थी ।
चन्दर से सभी को बहुत आशायें थी और पढाई के समय वो इन सभी आशाओं पर पूर्णतया खरा उतरा ।परन्तु अब समय निकल चुका था ।तेज तर्रार चन्दर को निकम्मा ,मक्कार की संज्ञा दी जाने लगी ।कारण वही अधिकतर युवाओं की तरह वह भी बेरोजकार ।

चन्दर रोज सुबह जल्दी उठता ,नहाता ,ईश्वर का ध्यान करता ,फिर माँ के कोमल हाथों और पिताजी की आशाओं का आशीर्वाद लेता और अपनी फाइलें लेकर निकल पडता । परंतु यह सुबह का चित्र था ।
सुबह का सूरज शाम होते-होते पीला हो जाता । घर के अन्दर घुसते ही थका हारा चन्दर लेट जाता ।बिखरे हुए बाल और लटका हुआ चेहरा बिना बोले ही “हार” की दास्तान कह देता है। पिताजी छ्डी पर हाथ का जोर और बढाकर अक्सर धीमी आवाज में सिर्फ एक ही बात करते “लाख कहा था सांइस लेने को ,तब तो पुरातत्व में दिलचस्पी थी साहब को.....सांइस के युग में इतिहास.........बेबकूफी इसे ही कहते हैं”

अरे भाई!जिन्दगी कभी दिलचस्पी से नहीं चलती ज्ञान बाबू का बेटा भी इन्ही के साथ का था ,इंजीनियर हो गया ।20000 कमाता है और एक ये साब ,20 रुपये ही ले आयें ।

चन्दर को ये बातें बुरी नही लगती ,वो जानता था माँ बाप ये बातें दिल से नहीं कहते ।यह तो संसार का नियम है कि दिल की भड़ास किसी न किसी पर निकाली जाती है और अगर उस पर गुस्सा होने से पिता जी के दिल का बोझ कम होता है तो बह सौभाग्यशाली है कि किसी तरह तो वह उनके काम आ सका । जीवन में एक विश्वास और एक दिन उसका भी होगा इस बात की आशा ,फिर पहली ही तनख्वाह से पिता जी के चश्मे का नया फ्रेम,माँ के लिए एक नई साडी और बहन के लिए एक मैड्म बाली पर्स ..............सिर्फ यही सपना था जो चन्दर के चेहरे पर अक्सर मुस्कान ले आता ।

परंतु हकीकत कुछ और कहने लगी ,छ्ह और महीने बीत गये परन्तु चन्दर को कोई नौकरी नही मिली ।वह बहुत परेशान रहता ।आज तो उसके मन को बहुत ठेस लगी ।पिता जी ने साफ तौर पर कह दिया कि अब वो उसे और नहीं ढो सकते ,नहीं नौकरी मिलती तो कोई छोटी मोटी दुकान पर काम कर लो,परंतु चन्दर अपने पैरों पर खडा होना चाह्ता था ।उसे यकीन था कि वह एक न एक दिन खुद की मेहनत के आधार पर आगे बढेगा ।

विचारों की कोई सीमा नही होती ।यह विचार ही किसी मनुष्य को जीवन की राह और उनके संकल्प दिखाते हैं । बेरोजकार व्यक्ति के विचार और कल्पनायें बहुत ऊंचे होते हैं ।ये लोग अपने आप को बडा साहसी समझकर अक्सर अपने आप को प्रधानमंत्री से ऊंचे पद पर या भ्रष्टाचार मिटा देने वाले अवतार के रूप में देखते हैं,वही प्रधानमंत्री या उससे ऊंचे पद पर बैठे लोग सदैव पद छिन जाने के डर से भयभीत रहते हैं।जिसके पास वस्तु है वह उसके छिन जाने से डरता है वहीं दूसरी ओर जिसके पास नहीं है वह जिन्दगी पर उस डर के पास जाने के लिए हाथ पैर मारता रहता है ।

परंतु चंदर इन सब से अलग था ,उसे काम में कोई अंतर नही दिखाई देता ।बह मजदूर से मालिक के अंतर को समझने में नाकामयाब था ।सडक पर चलते हुए उसकी नजर बोझ खींचने वाले एक व्यक्ति पर पडी।अचानक मजदूर ने दुकान के सामने अपना ठेला रोक दिया ---

--“यह इसी दुकान का सामान है”—दुकानदार नें पूछा
--”हां साहब” पास के गोदाम से लाया हूँ।”
--ठीक है....क़ितने पैसे हुए?
--जितने दे दो साब ..ज्यादा ही होंगे

दुकानदार ने मुस्कुराते हुए 50 रू आगे बढा दिए ,परंतु दूर खडे चन्दर के पैर भी अनायास ही दुकान की ओर चल दिये ।

50 रूपये में जिन्दगी चला लेते हो ? चन्दर ने ठेले वाले से पूछा ।
साहब,3 चक्कर रोज चला लेता हूँ ,100 से ज्यादा कमा लेता हूँ ,महीने का यही कोई 3000 । कम से कम माँ बाप पर बोझ नही हूँ ।

---पढे लिखे हो ? चन्दर ने फिर पूछा ।
हाँ साब ! माँ बाप ने बहुत मेहनत से पढाया पर नौकरी नहीं मिली....इतना कहकर ठेले बाले की आंख रूआसी हो आई ।

इससे पहले चन्दर के होंठ कुछ कह पायें ,पैर स्वंय घर की ओर तेजी से चल दिये ।मानो लगता था कि चन्दर को जबाब पहले से ही पता था बस प्रतीक्षा थी कानों से एक बार उसे सुनने की .........................!!

एक अजीब से संकल्प के साथ आज चन्दर की सुबह हुई ।वह कुछ न कुछ कमाकर ही लौटेगा ।

उसने माँ से गर्व के साथ कहा ---माँ आज मुझे नौकरी मिल गई।इस एक लाईन ने पूरे घर के माहौल को बदल दिया ।माँ की आंखे छ्ल-छ्ला उठी ।पिताजी दाढी बना रहे थे .....वो आधी –अधूरी वहीं छूट गई,बहन जिसके पैर स्कूल जाने के के लिये निकलने को थे ,अपने आप ही मुड कर बरामदे की ओर हो गये ।दौडते हुए वो भाई से लिपट गई।

पर किसी ने नही पूछा कि चन्दर को नौकरी कहाँ मिली ।यह या तो घर वालो का विश्वास था या फिर बरसों बाद आई खुशी को जी भर के जीने की तमन्ना ।

माँ ...आज तेरा बेटा कुछ कमाकर लौटेगा ।चन्दर ने पैर छूते हुए कहा ।
पिता जी ने चंदर को गले लगाकर आशीर्वाद दिया ।
चन्दर सीधे माल रोड के गोदाम में गया ।एक ठेला किराये पर लिया और फिर नकली मूंछे ,ताकि कोई न पहचान पाये कि यह पोस्ट आफिस में काम करने वाले जतिन बाबू का बेटा है ।
“जी साब । सामान कहाँ पहुँचाना है ?”
अरे बस ,यहीं पोस्ट आफिस के सामने वाली गली तक ....सामान थोडा ज्यादा है इसलिए 70 रुपये ले लेना ।
पर यह तो चन्दर की कालोनी थी ।किसी ने पहचान लिया तो ! चन्दर ने ठेले में लगे शीशे में अपने आप को देखा ।

“अरे कोई नही पहचानेगा ... फिर डरने की की क्या बात है ।सामान उतारकर तुंरत लौट आयेगा ।जिंदगी में खुद की मेहनत के पहली बार 70 रुपये आ रहे हैं ।इस ग्राहक को मना करना बिल्कुल ठीक नहीं होगा ।“

“ठीक है भाई “सामान रखो और पता बताओ ?
”सी-5/11”
चलो कम से कम यह तो अछ्छा है मेरा घर डी ब्लाक में है।चन्दर ने मन ही मन में सोचा ।
वह सामान लेकर चल पडा ।गजब का उत्साह था ,चमक थी ।सोचा था कि 70 रू मिलेंगे ।बापू का फ्रेम तो कम से कम आज ही आ जायेगा ।
चन्दर अपना ठेला लेकर कालोनी में पहूंच गया ।उसने अपने चेहरे को कपडे से ढक लिया ।आंखो मे कमाने की ललक थी तो वहीं पकडे जाने का डर भी।अजीब सी संशय की स्थिति थी ।मानो कि कोई चोरी कर रहा हो ।अचानक सामने से एक जाना पहचाना चेहरा नजर आया ....अरे यह तो मेरी बहन है।
चन्दर के हांथ कांपने लगे ।लगा बहन ने उसको पहचान लिया ।हाथ भय से कांपने लगे ।डर और शर्म के कारण चन्दर सडक पर ही रूक गया।संकरी गली में पीछे ट्रैफिक जमा होने लगा ।
“अरे ओए रिक्शा “आगे बढो।एक जोर की आवाज आई पर चन्दर नहीं हिला ।
”लडकी देख के रूक गया ....साला “...ओए चल वे आगे ।किसी नें हंसते हुए कसीदे जड दिये!

अरे भाई बहुत देख लिया अब चलो भी.....ग्राहक भी परेशान होकर बोला।
“ए मिस्टर । कहाँ ध्यान है?”

ये तो स्वंय जतिन बाबू थे ।
पिताजी ------------मन ही मन में चन्दर का ह्रदय बोल पडा ।पर शब्दों को होठों का सहारा न मिल सका ।
अबे ठेले बाले अपनी औकाद देख...घर में माँ बहन नही है तेरी ...।जो ....॥
जतिन बाबू की आंखे गुस्से से तिलमिला रही थी ।
“जी साब मै तो यूँ ही....”
“नालायक चुप ....।कह कर जतिन बाबू ने आखिरकार ठेले वाले के थप्पड रसीद दिये ।

चन्दर ने अपनी आंखो के आसूँ और ह्र्दय की सच्चाई तो छुपा लिया पर चेहरे पर लगी नकली मूंछो ने सब कुछ बयाँ कर दिया।जतिन बाबू कभी चन्दर को देखते तो कभी हाथ मे लिए ठेले को ।अचानक उनकी नजरों में सुबह का दृश्य आ गया ।
“माँ ,आज मै कुछ कमाकर लाऊंगा “
”पिता जी ,मेरी नौकरी लग गई “
जतिन बाबू वहीं सडक के किनारे बेंच पर बैठ गये ।चन्दर के हाथ में अभी भी ठेला था ,हिम्मत करके वो आगे की ओर चल दिया ।शायद किसी ने नहीं पहचान पाया कि ठेले वाला ,थप्पड मारने वाले का ही बेटा था।

--“भ्रमर कुमार”---

Friday, March 09, 2007

एक उदास सुबह

आसमां के बादल के पीछे ;
परियों के उस झुरमुट के बीच में
खडी एक प्यारी सी परी !!!!

घटा से बाल हैं जिसके;
दमक बिजली की जैसी है
कमल के फूल सी रंगत ;
हंसी मोती के जैसी है !!

मासूमियत ऐसी कि जैसे;
नन्ही गिलहरी हो;
बातें ऐसे जैसे फिजा ;
उससे ही रौनक हो ॥

बहुत देखा था बचपन में
पतंग को बादलों में छिपते-छिपाते।
और जब हाथों की डोर टूट जाती थी;
एक “उदासी”संग मेरे छ्त पे
साथ रह जाती थी।

आज फिर “परी” मेरी
वही अठखेलियां करती !
आती है और फिर उड् जाती है
सपनो से मेरे!!!

फिर आंख खुलती है
हकीकत पास आती है
हर सुबह यूहीं
इक उदासी साथ जाती है !!!!

Thursday, February 22, 2007

इंसानो की तकदीरों मे चांद नही होता है

शब्द सरल थे ,अर्थ एक था ;
था उसका ही चेहरा ।
फिर भी कोई समझ न पाया ,
यह पागल क्या लिख बैठा !

बेलगाम थी कलम ;
कलम हंस-2 कर बोली ।
किधर चली “भ्रमर” तेरे नयनो की डोरी,
कहां खोये हो इधर न कोई कन्या,काशी;
या फिर तुम भी बतला दो वो बात जरा सी ॥

क्यों राते अब दिन को, और दिन अब रात बुलायें ।
मन ही मन मे पगले क्यों तू मुस्काये !
पतझड की पत्ते भी,तुझको फूल दिखे हैं !
राहों के थे जो सब दुश्मन ,अब दोस्त लगे हैं

वो काले बादल तक अब कुछ-2 छटा बिखेरे !
बुझे दिये की कालिख से तू क्यों नयना जोडे !
और दर्पण से बात करे फिर चुप हो जाये ।
कांपे तेरे होंठ ,मगर दिल मुस्काये ॥

झूठ अगर कह्ती हूँ तो मै चलती चलती रूक जाऊंगी
और अगर हूँ सच्ची तो तुझसे कुछ सुनकर जाऊंगी ॥
जो कहना था कलम ,कलम खिल-2 कर बोली ;
लगा चिढाने आई हो स्याही बनके एक छोरी !!


मै बोला........
हाँ सुन !
मुझको भी चांद मिला है ।
कई दिनो से छ्त के ऊपर ,
खिला –खिला है ॥
रात बेबफा खो जाती है फिर भी दिखता है ,
सुबह-2 सागर की लहरों पर वो चलता है ॥
उसके चेहरे पर भी है एक दाग जरा सा ।
श्वेत गुलाब पर बैठे ,एक भंवरे के जैसा ॥


वो जब हंसे लगे मोतियों ने एक धार बनाई !
उसके रोने पर मेरी धडकन रूक जाये !
और जब मेरी ये नजरे उससे मिल जायें;
वही उड़ रहे काले बादल में वो छिप जाये
फिर कभी -2 खिडकी के पीछे जाके हंसती है ;
और वहीं उसी ओट से मुझको तकती है ।

पर ऐ दोस्त, कलम !
सच टूटा और रूठा सा
मेरे आंगन के एक सूखे से पौधे सा ।

चांद मिला था ,थी पूरनमासी,
उस दिन था वो पूरा !
अगले दिन ही काटा हिस्सा ।
हुआ चांद अधूरा ॥

फिर मावस की काली छाया
एक दिन आ जाती है !
दीवाने के पास सिर्फ कुछ
यादें रह जाती है....॥

दूर बैठ के बस इतना कहता ।
पत्थर की मूरत मे कोई घाव नहीं होता है
इंसानो की तकदीरों मे चांद नही होता है ।

Thursday, January 11, 2007

उम्मीद..॥

उम्मीद
लेखक :-भ्रमर कुमार

31 दिसम्बर 2005,एक बार फिर धुंध से भरी हुई सर्द रात,कोहरे ने धरती तो कुछ इस तरह अपने आगोश में लिया कि लगा प्रकृति की सफेद रजाई ने पूरे आसमान को ढक लिया हो और उस रजाई के बाहर की यह धरती........बिना बोले सामना कर रही है कडाके की सर्दी का । हड्डियों को गला देने वाली ठंडी हवाओं को भी अपना वीभत्स रूप
आज ही दिखाना था । प्रकृति ने अपनी करवट से प्राणियों को ठहर जाने के लिए कह दिया..! लेकिन धन्य हो मनुष्य.....जिसने समय बनाया और इस समय को आदेश दिया कि कभी किसी को ठहरने मत दो।समय के उसी धुरी पर क्षण ,दिन ,महीने और साल बीते ।और आज फिर आया एक नये साल के आने का जश्न ........। तो क्या हुआ कि प्रकृति जश्न मनाने से रोक रही है। मौसम से 2-2 हाथ करने को हम शहरवासी बिल्कुल तैयार हैं...हमारे पास तेज सुर में बजता संगीत है ,रंग-बिरंगी गर्म पोशाकें है,खुशी जाहिर करने के लिए पटाखे हैं,रोशनी की जगमगाहट है ;माहौल को मदहोश करने के लिये विह्स्की के जाम और थिरकते हुए कुछ खूबसूरत इंसान । शायद अंदर से आत्मिक दुख हैं फिर भी मन तो खुश है..हमें हंसाने के लिये तरह तरह के specialist लाये गये हैं। हम दो मिलकर किसी तीसरे पर जोर-2 से हंसते हैं।

बाहर का एक इंसान अचानक से बेतुका सा प्रश्न कर बैठा

----क्या बात है भाई साहब ! बडे खुश नजर आ रहे हो ?
अचानक 30 तारीख तक चेहरे के साथ चलने वाला तनाव ,31 की रात आते ही न जाने कहाँ ,कब गायब हुआ । यह गायब हुआ है या दिखाई नही दे रहा ? या फिर हम नजर उठा कर उस तरफ देखना नहीं चाह्ते ?

----भाई साब खुश क्यो नही होंगे...नया साल जो आ रहा है।और इसी के साथ आ रही है एक आम आदमी की उम्मीद ..कि जैसे आज खुश हैं सारे साल रहें । युंही हंसते –खेलते ,नाचते गुनगुनाते वक्त बीत जाये।

और फिर अगर अगर इसी उम्मीद पर जिंदगी के कुछ पल हंसी से गुजार दिये जाये तो फिर इसकी फिक्र किसे ????


31 दिसम्बर 2006;एक बार फिर कोहरे की सर्द बूंदे कुछ ज्यादा ही सर्द हो चुकी हैं । अंधेरा इतना कि लगा ईश्वर के दिये के नीचे की कालिख यहीं किसी सतह पर जम गयी हो । निशब्द सन्नाटे के बीच कभी -2 कुत्तो के भौंखने की आवाज ,वक्त वही रात के 11 बजकर 30 मिनट का ; किसानों का एक झुरमुट कम्बल के अभाव में आग तापता हुआ ,और साथ ही कोसो दूर शहर की रोशनी की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए..

उनमें से कुछ युवा भाग्य की लकीरों को दोषी बता रहे हैं तो कुछ वृद्ध इसी को पूर्व जन्म के पापों का फल और शहर वालों के पूर्व जन्म के पुण्य का परिणाम। आंगन में जलती हुई एक मिट्टी के तेल की कुप्पी अपने पूरे सामर्थ से हवा के साथ जंग लड रही है....परंतु गांवो में हमेशा की तरह एक बार फिर पवन का प्रहार रोशनी पर भारी पडा और दिया बुझ गया ...।

दूर शहर में एक जोर के पटाखे ने गांव की एक अनपढ बुढिया को जगा दिया ..
-------“लागत है चोर आई गए....गोली दागी राहे “
बुढिया संशय भरे भाव में बोली.

----चुप्पै सोई जाओ चाची ......नया साल शुरू हुआ ताहि तो पटाखा जलो है शहर में.।
बुढिया फिर कम्बल मे लिपटकर टूटे हुए खटोले पर सो गयी ....अचानक से फिर वही पुराना सन्नाटा ,फिर वही निशब्द वातावरण ,न नये साल की कोई मुबारकबाद ,न ही खुशी का कोई माहौल । नींद न आते हुए भी मैने कम्बल के पीछे अपना पूरा चेहरा छुपा लिया।
“ऐसा ही होता है जब उम्मीदें भी जल कर खाक हो चुकी होती हैं और लोग अगले बरस की बजाये अगले जन्म का इंतजार करते हैं “