शब्द सरल थे ,अर्थ एक था ;
था उसका ही चेहरा ।
फिर भी कोई समझ न पाया ,
यह पागल क्या लिख बैठा !
बेलगाम थी कलम ;
कलम हंस-2 कर बोली ।
किधर चली “भ्रमर” तेरे नयनो की डोरी,
कहां खोये हो इधर न कोई कन्या,काशी;
या फिर तुम भी बतला दो वो बात जरा सी ॥
क्यों राते अब दिन को, और दिन अब रात बुलायें ।
मन ही मन मे पगले क्यों तू मुस्काये !
पतझड की पत्ते भी,तुझको फूल दिखे हैं !
राहों के थे जो सब दुश्मन ,अब दोस्त लगे हैं
वो काले बादल तक अब कुछ-2 छटा बिखेरे !
बुझे दिये की कालिख से तू क्यों नयना जोडे !
और दर्पण से बात करे फिर चुप हो जाये ।
कांपे तेरे होंठ ,मगर दिल मुस्काये ॥
झूठ अगर कह्ती हूँ तो मै चलती चलती रूक जाऊंगी
और अगर हूँ सच्ची तो तुझसे कुछ सुनकर जाऊंगी ॥
जो कहना था कलम ,कलम खिल-2 कर बोली ;
लगा चिढाने आई हो स्याही बनके एक छोरी !!
मै बोला........
हाँ सुन !
मुझको भी चांद मिला है ।
कई दिनो से छ्त के ऊपर ,
खिला –खिला है ॥
रात बेबफा खो जाती है फिर भी दिखता है ,
सुबह-2 सागर की लहरों पर वो चलता है ॥
उसके चेहरे पर भी है एक दाग जरा सा ।
श्वेत गुलाब पर बैठे ,एक भंवरे के जैसा ॥
वो जब हंसे लगे मोतियों ने एक धार बनाई !
उसके रोने पर मेरी धडकन रूक जाये !
और जब मेरी ये नजरे उससे मिल जायें;
वही उड़ रहे काले बादल में वो छिप जाये
फिर कभी -2 खिडकी के पीछे जाके हंसती है ;
और वहीं उसी ओट से मुझको तकती है ।
पर ऐ दोस्त, कलम !
सच टूटा और रूठा सा
मेरे आंगन के एक सूखे से पौधे सा ।
चांद मिला था ,थी पूरनमासी,
उस दिन था वो पूरा !
अगले दिन ही काटा हिस्सा ।
हुआ चांद अधूरा ॥
फिर मावस की काली छाया
एक दिन आ जाती है !
दीवाने के पास सिर्फ कुछ
यादें रह जाती है....॥
दूर बैठ के बस इतना कहता ।
पत्थर की मूरत मे कोई घाव नहीं होता है
इंसानो की तकदीरों मे चांद नही होता है ।
Thursday, February 22, 2007
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