Sunday, March 11, 2007

कर्म

कर्म की प्रतीक्षा में शायद जीवन नष्ट हो जाता है परन्तु इंसान को क्षमता के अनुसार कर्म नहीं मिलता । शायद वह इसे कभी नहीं ढूंढ नहीं पाता या फिर कर्म स्वंय उससे दूर भागता ।चन्दर बी.ए. पास था वो भी प्रथम श्रेणी में । क्लास में अव्वल रहता ,पिता जी साधारण से पोस्ट आफिस में क्लर्क़ थे । घर पर एक बडी बहन थी जो राजनीति से एम.ए करके पास के स्कूल में छोटे बच्चों को पढानें लगी थी ।
चन्दर से सभी को बहुत आशायें थी और पढाई के समय वो इन सभी आशाओं पर पूर्णतया खरा उतरा ।परन्तु अब समय निकल चुका था ।तेज तर्रार चन्दर को निकम्मा ,मक्कार की संज्ञा दी जाने लगी ।कारण वही अधिकतर युवाओं की तरह वह भी बेरोजकार ।

चन्दर रोज सुबह जल्दी उठता ,नहाता ,ईश्वर का ध्यान करता ,फिर माँ के कोमल हाथों और पिताजी की आशाओं का आशीर्वाद लेता और अपनी फाइलें लेकर निकल पडता । परंतु यह सुबह का चित्र था ।
सुबह का सूरज शाम होते-होते पीला हो जाता । घर के अन्दर घुसते ही थका हारा चन्दर लेट जाता ।बिखरे हुए बाल और लटका हुआ चेहरा बिना बोले ही “हार” की दास्तान कह देता है। पिताजी छ्डी पर हाथ का जोर और बढाकर अक्सर धीमी आवाज में सिर्फ एक ही बात करते “लाख कहा था सांइस लेने को ,तब तो पुरातत्व में दिलचस्पी थी साहब को.....सांइस के युग में इतिहास.........बेबकूफी इसे ही कहते हैं”

अरे भाई!जिन्दगी कभी दिलचस्पी से नहीं चलती ज्ञान बाबू का बेटा भी इन्ही के साथ का था ,इंजीनियर हो गया ।20000 कमाता है और एक ये साब ,20 रुपये ही ले आयें ।

चन्दर को ये बातें बुरी नही लगती ,वो जानता था माँ बाप ये बातें दिल से नहीं कहते ।यह तो संसार का नियम है कि दिल की भड़ास किसी न किसी पर निकाली जाती है और अगर उस पर गुस्सा होने से पिता जी के दिल का बोझ कम होता है तो बह सौभाग्यशाली है कि किसी तरह तो वह उनके काम आ सका । जीवन में एक विश्वास और एक दिन उसका भी होगा इस बात की आशा ,फिर पहली ही तनख्वाह से पिता जी के चश्मे का नया फ्रेम,माँ के लिए एक नई साडी और बहन के लिए एक मैड्म बाली पर्स ..............सिर्फ यही सपना था जो चन्दर के चेहरे पर अक्सर मुस्कान ले आता ।

परंतु हकीकत कुछ और कहने लगी ,छ्ह और महीने बीत गये परन्तु चन्दर को कोई नौकरी नही मिली ।वह बहुत परेशान रहता ।आज तो उसके मन को बहुत ठेस लगी ।पिता जी ने साफ तौर पर कह दिया कि अब वो उसे और नहीं ढो सकते ,नहीं नौकरी मिलती तो कोई छोटी मोटी दुकान पर काम कर लो,परंतु चन्दर अपने पैरों पर खडा होना चाह्ता था ।उसे यकीन था कि वह एक न एक दिन खुद की मेहनत के आधार पर आगे बढेगा ।

विचारों की कोई सीमा नही होती ।यह विचार ही किसी मनुष्य को जीवन की राह और उनके संकल्प दिखाते हैं । बेरोजकार व्यक्ति के विचार और कल्पनायें बहुत ऊंचे होते हैं ।ये लोग अपने आप को बडा साहसी समझकर अक्सर अपने आप को प्रधानमंत्री से ऊंचे पद पर या भ्रष्टाचार मिटा देने वाले अवतार के रूप में देखते हैं,वही प्रधानमंत्री या उससे ऊंचे पद पर बैठे लोग सदैव पद छिन जाने के डर से भयभीत रहते हैं।जिसके पास वस्तु है वह उसके छिन जाने से डरता है वहीं दूसरी ओर जिसके पास नहीं है वह जिन्दगी पर उस डर के पास जाने के लिए हाथ पैर मारता रहता है ।

परंतु चंदर इन सब से अलग था ,उसे काम में कोई अंतर नही दिखाई देता ।बह मजदूर से मालिक के अंतर को समझने में नाकामयाब था ।सडक पर चलते हुए उसकी नजर बोझ खींचने वाले एक व्यक्ति पर पडी।अचानक मजदूर ने दुकान के सामने अपना ठेला रोक दिया ---

--“यह इसी दुकान का सामान है”—दुकानदार नें पूछा
--”हां साहब” पास के गोदाम से लाया हूँ।”
--ठीक है....क़ितने पैसे हुए?
--जितने दे दो साब ..ज्यादा ही होंगे

दुकानदार ने मुस्कुराते हुए 50 रू आगे बढा दिए ,परंतु दूर खडे चन्दर के पैर भी अनायास ही दुकान की ओर चल दिये ।

50 रूपये में जिन्दगी चला लेते हो ? चन्दर ने ठेले वाले से पूछा ।
साहब,3 चक्कर रोज चला लेता हूँ ,100 से ज्यादा कमा लेता हूँ ,महीने का यही कोई 3000 । कम से कम माँ बाप पर बोझ नही हूँ ।

---पढे लिखे हो ? चन्दर ने फिर पूछा ।
हाँ साब ! माँ बाप ने बहुत मेहनत से पढाया पर नौकरी नहीं मिली....इतना कहकर ठेले बाले की आंख रूआसी हो आई ।

इससे पहले चन्दर के होंठ कुछ कह पायें ,पैर स्वंय घर की ओर तेजी से चल दिये ।मानो लगता था कि चन्दर को जबाब पहले से ही पता था बस प्रतीक्षा थी कानों से एक बार उसे सुनने की .........................!!

एक अजीब से संकल्प के साथ आज चन्दर की सुबह हुई ।वह कुछ न कुछ कमाकर ही लौटेगा ।

उसने माँ से गर्व के साथ कहा ---माँ आज मुझे नौकरी मिल गई।इस एक लाईन ने पूरे घर के माहौल को बदल दिया ।माँ की आंखे छ्ल-छ्ला उठी ।पिताजी दाढी बना रहे थे .....वो आधी –अधूरी वहीं छूट गई,बहन जिसके पैर स्कूल जाने के के लिये निकलने को थे ,अपने आप ही मुड कर बरामदे की ओर हो गये ।दौडते हुए वो भाई से लिपट गई।

पर किसी ने नही पूछा कि चन्दर को नौकरी कहाँ मिली ।यह या तो घर वालो का विश्वास था या फिर बरसों बाद आई खुशी को जी भर के जीने की तमन्ना ।

माँ ...आज तेरा बेटा कुछ कमाकर लौटेगा ।चन्दर ने पैर छूते हुए कहा ।
पिता जी ने चंदर को गले लगाकर आशीर्वाद दिया ।
चन्दर सीधे माल रोड के गोदाम में गया ।एक ठेला किराये पर लिया और फिर नकली मूंछे ,ताकि कोई न पहचान पाये कि यह पोस्ट आफिस में काम करने वाले जतिन बाबू का बेटा है ।
“जी साब । सामान कहाँ पहुँचाना है ?”
अरे बस ,यहीं पोस्ट आफिस के सामने वाली गली तक ....सामान थोडा ज्यादा है इसलिए 70 रुपये ले लेना ।
पर यह तो चन्दर की कालोनी थी ।किसी ने पहचान लिया तो ! चन्दर ने ठेले में लगे शीशे में अपने आप को देखा ।

“अरे कोई नही पहचानेगा ... फिर डरने की की क्या बात है ।सामान उतारकर तुंरत लौट आयेगा ।जिंदगी में खुद की मेहनत के पहली बार 70 रुपये आ रहे हैं ।इस ग्राहक को मना करना बिल्कुल ठीक नहीं होगा ।“

“ठीक है भाई “सामान रखो और पता बताओ ?
”सी-5/11”
चलो कम से कम यह तो अछ्छा है मेरा घर डी ब्लाक में है।चन्दर ने मन ही मन में सोचा ।
वह सामान लेकर चल पडा ।गजब का उत्साह था ,चमक थी ।सोचा था कि 70 रू मिलेंगे ।बापू का फ्रेम तो कम से कम आज ही आ जायेगा ।
चन्दर अपना ठेला लेकर कालोनी में पहूंच गया ।उसने अपने चेहरे को कपडे से ढक लिया ।आंखो मे कमाने की ललक थी तो वहीं पकडे जाने का डर भी।अजीब सी संशय की स्थिति थी ।मानो कि कोई चोरी कर रहा हो ।अचानक सामने से एक जाना पहचाना चेहरा नजर आया ....अरे यह तो मेरी बहन है।
चन्दर के हांथ कांपने लगे ।लगा बहन ने उसको पहचान लिया ।हाथ भय से कांपने लगे ।डर और शर्म के कारण चन्दर सडक पर ही रूक गया।संकरी गली में पीछे ट्रैफिक जमा होने लगा ।
“अरे ओए रिक्शा “आगे बढो।एक जोर की आवाज आई पर चन्दर नहीं हिला ।
”लडकी देख के रूक गया ....साला “...ओए चल वे आगे ।किसी नें हंसते हुए कसीदे जड दिये!

अरे भाई बहुत देख लिया अब चलो भी.....ग्राहक भी परेशान होकर बोला।
“ए मिस्टर । कहाँ ध्यान है?”

ये तो स्वंय जतिन बाबू थे ।
पिताजी ------------मन ही मन में चन्दर का ह्रदय बोल पडा ।पर शब्दों को होठों का सहारा न मिल सका ।
अबे ठेले बाले अपनी औकाद देख...घर में माँ बहन नही है तेरी ...।जो ....॥
जतिन बाबू की आंखे गुस्से से तिलमिला रही थी ।
“जी साब मै तो यूँ ही....”
“नालायक चुप ....।कह कर जतिन बाबू ने आखिरकार ठेले वाले के थप्पड रसीद दिये ।

चन्दर ने अपनी आंखो के आसूँ और ह्र्दय की सच्चाई तो छुपा लिया पर चेहरे पर लगी नकली मूंछो ने सब कुछ बयाँ कर दिया।जतिन बाबू कभी चन्दर को देखते तो कभी हाथ मे लिए ठेले को ।अचानक उनकी नजरों में सुबह का दृश्य आ गया ।
“माँ ,आज मै कुछ कमाकर लाऊंगा “
”पिता जी ,मेरी नौकरी लग गई “
जतिन बाबू वहीं सडक के किनारे बेंच पर बैठ गये ।चन्दर के हाथ में अभी भी ठेला था ,हिम्मत करके वो आगे की ओर चल दिया ।शायद किसी ने नहीं पहचान पाया कि ठेले वाला ,थप्पड मारने वाले का ही बेटा था।

--“भ्रमर कुमार”---

Friday, March 09, 2007

एक उदास सुबह

आसमां के बादल के पीछे ;
परियों के उस झुरमुट के बीच में
खडी एक प्यारी सी परी !!!!

घटा से बाल हैं जिसके;
दमक बिजली की जैसी है
कमल के फूल सी रंगत ;
हंसी मोती के जैसी है !!

मासूमियत ऐसी कि जैसे;
नन्ही गिलहरी हो;
बातें ऐसे जैसे फिजा ;
उससे ही रौनक हो ॥

बहुत देखा था बचपन में
पतंग को बादलों में छिपते-छिपाते।
और जब हाथों की डोर टूट जाती थी;
एक “उदासी”संग मेरे छ्त पे
साथ रह जाती थी।

आज फिर “परी” मेरी
वही अठखेलियां करती !
आती है और फिर उड् जाती है
सपनो से मेरे!!!

फिर आंख खुलती है
हकीकत पास आती है
हर सुबह यूहीं
इक उदासी साथ जाती है !!!!