Friday, August 03, 2007

शैक्षिक आरक्षण :एक आवश्यकता

आदि के उत्थान से लेकर अनंत के गर्भ तक जिस मानवीय सभ्यता पर हमें सर्वाधिक गर्वानुभूति होती है उसी सभ्यता के निचले धरातल पर मानव द्वारा किए गये कुछ ऐसे स्वार्थ हैं जिनको समय समय पर बुद्दिजीवियों द्वारा “गलत प्रावधान” के रूप में स्वीकार किया गया ।जीवित रहने के लिए असुरक्षा की मनोवैजानिक भावना ने “जीवन और सत्ता के लिए संघर्ष:-एक आवश्यकता” के डार्विन सिद्धांत को और सुदृण किया ।

में जब समाज की स्थापना हुई तो कल्पनाशील मनुष्यों ने नये नियमों का सृजन किया।इन नियमों को स्थापित करने का मूल, समाज को एक व्यवस्था से बांधना मात्र था ,परंतु पुन: “असुरक्षा” की भावना,और सत्ता की लोलुपता ने मनुष्यों को ऐसे नियमों को बनाने के लिए विवश कर दिया जिनसे चिर काल तक एक वर्ग विशेष सुरक्षित रहे।जाति व्यवस्था,वर्ण व्यवस्था,गोरों द्वारा कालों से घृणा, पुरूष वर्ग द्वारा स्त्री जाति से स्वयं को अधिक पूर्ण मानना अपने चरम सीमा पर उस समय पहुंच गया जब प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं पर एक वर्ग द्वारा एकाधिकार होने लगा और दूसरे को उससे सदा के लिए वंचित करने का षडयंत्र ।आश्चर्य की बात यह है कि “निश्वार्थ आओ,सेवार्थ जाओ” की मूल भावना रखने वाला शैक्षिक जगत भी इससे अछूता नहीं रहा ।

भारतीय समाज में “एकलव्य” एवं “कर्ण” की पौराणिक कथाओं से लेकर डा.भीमराव अम्बेडकर के द्वारा शिक्षा के लिए किये गये संघर्ष के उदाहरण हमारे पास हैं।अगर इतिहास ,सामाजिक सुधार और राजनीतिक कदमों को एक साथ ज़ोडकर देंखे तो लगभग 1400 वर्षों के सामाजिक ढांचे में सुधार हेतु स्वयं डा.अम्बेडकर ने 10 वर्षों के आरक्षण का प्रारम्भिक प्रावधान किया ।यह एक व्यक्ति द्वारा संविधान के प्रति निष्ठा ही ठीक जिसने दस वर्षों के अन्दर एक बडे सामाजिक परिवर्तन का सपना देखा।
प्रथम दृश्टया वास्तव में कुछ बडे परिवर्तन भी हुए ।शिक्षा,नौकरी,ग्राम समाज के छोटे पदों से होते हुए दलित ,महिला और पिछ्डा समाज प्रशासन,संसद तथा राष्ट्र्पति भवन के गलियारों तक पहूंचा ।सामाजिक तथा आर्थिक समरसता बढी।परंतु इसके बाद भी प्रतिशत रूप का जब भी आंकलन किया गया ,उत्तर नकारात्मक ही रहे ।मंडल आयोग की सिफारिशे मानना सरकार की संवैधानिक मजबूरी थी ।

इस प्रकार, इससे पहले कि आरक्षण के विरोध में हम कोई मोर्चाबंदी करने के लिए निकलें,हमारे पास इसका कोई बेहतर और ठोस विकल्प अवश्य होना चाहिए। जिन लोगों को ‘आरक्षण’ दिया जाना हम पसंद नहीं करते, उन्हें संविधान के अनुसार प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए हमारे पास कौन-सा बेहतर वैकल्पिक उपाय है? भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो इसके लिए आरक्षण का ही उपाय किया गया है। यदि आप भारतीय संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखते हैं तो आपको आरक्षण के उस प्रावधान को लागू किए जाने का समर्थन करना चाहिए जिसे भारत की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार भारतीय संविधान के उपबंधों के दायरे में लागू करना चाह रही हो। यदि आपकी आस्था संविधान और लोकतंत्र में नहीं है तो फिर यह ध्यान रखिए कि आप आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का विरोध भी इसीलिए कर पा रहे हैं क्योंकि भारतीय संविधान और लोकतंत्र ने ही आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है

मैने जितने भी आरक्षण के विरोधियों को सुना है ,अधिकांशत: उनमें से पदानुक्रम’ (Hierarchy) और ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) को अपना सिद्धांत बनाते हैं ,परंतु वही लोग वर्षों के सामाजिक ,आर्थिक और मनोवैज्ञानिक अंतर को भूल जाते हैं।अगर हम समाज के साथ जुडकर देखें तो पायेंगे कि आरक्षण सिर्फ समाज को एकीकृत करनें का एक प्रयास है ,और मेरे विचार से आरक्षण के लिए संघर्ष तभी प्रारम्भ हो सकता है जब किसी राष्ट्र की सरकार के पास सुविधाओं के लिए कमियाँ होने लगी ।

आरक्षण का एक कारगर विकल्प हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सुझाया कि प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में जितनी सीटें आरक्षित की जा रही हों, कुल सीटों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ा दी जानी चाहिए ताकि गैर-आरक्षित श्रेणी के लिए पहले की तरह अवसर उपलब्ध रहें। इस सुझाव का व्यापक स्वागत हुआ। सीटों की संख्या जितनी बढ़ाई जा सके उतनी बेहतर है ताकि अधिक से अधिक लोगों को उच्च शिक्षा हासिल करने का मौका मिल सके। आदर्श स्थिति तो वह होगी जिसमें हर शिक्षार्थी को पढ़ने को मौका मिले और हर बेरोजगार को रोजगार मिले। लेकिन चूंकि प्रत्याशी अधिक होते हैं और अवसरों की उपलब्धता काफी कम होती है, इसलिए प्रतियोगिता आयोजित कराई जाती है ताकि जो सबसे योग्य हों उन्हें ही सीमित अवसरों का लाभ मिल सके। लेकिन असमान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता कदापि नहीं हो सकती। भारत में अभी तक ऐसी व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है जिसमें किसी प्रतियोगिता के आयोजन से पहले हर प्रत्याशी को उसकी तैयारी के लिए समान सुविधा और समान परिस्थिति उपलब्ध हो सके। आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में कृष्ण और सुदामा अब एक साथ नहीं पढ़ा करते । यदि आप आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करना चाहते हैं तो पहले आप ऐसी व्यवस्था विकसित कीजिए ताकि किसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले हर प्रतियोगी को समान सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उपलब्ध हो सके।
आरक्षण का विरोध वही करते हैं जिन्होंने न तो हमारा समाज देखा है और न ही अवसरों की ग़ैर-बराबरी को समझने की कोशिश की है. ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है।मिसाल के तौर पर अमरीकी समाज ने जब तक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तबतक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं।

जो लोग आरक्षण को ख़ारिज करते हैं, वो तो हमेशा से सामाजिक न्याय के सवाल को भी ख़ारिज करते रहे हैं. ये वो लोग हैं जो कि हिंदुस्तान के मध्यम वर्ग को अन्य वर्गों के लिए कुछ भी छोड़ना पड़े, इस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं.। इस प्रकार से स्पष्ट है कि शिक्षा में आरक्षण वर्तमान परिदृश्य में अत्यंत महत्पूर्ण हो गया है।यह न केवल सामाजिक विघटन को रोकेगा बल्कि भविष्य में नौकरियों से आरक्षण को हटाने में महत्वपूर्ण योगदान भी प्रदान करेगा ।