Thursday, December 31, 2009

नींद का अंतिम प्रहर, बीत जाने दे जरा।

नया है !

या पुराने को ही

फिर से सिल दिया ।


और

लगा दिये कुछ

और अस्तर।

पहले इस ठंड में हल्के

पानी की कुछ बूंदे छिड़्की

और फिर

घुमा दी गर्म करके

इस्तरी ॥


यूंही अक्सर

प्रेस करके छुपा देते हो ,

और गुमराह

करते हो , नया कह देते हो ,

365 दिनों के बाद उसी पुराने को ॥


ये

कुछ दैत्य रूपी क़ाटें ,

जो खाकी वर्दी में छुपकर

चीर कर रख देते हैं हमारे नये कपड़े ॥


और फिर

तुम गुमराह करते हो

कभी

काले कोट वालों से

तो कभी

सफेद टोपी वालों से ॥


ध्यान दो

अब,

हमारी मूर्खता कुछ और दिन की है ॥

शाप और वनवास अवधि खत्म होनी है ॥


और बस .......

ये नींद का अंतिम प्रहर, बीत जाने दे जरा ॥

Wednesday, December 16, 2009

पुराना लेकिन ताजा विचार

भारत में अगर किसी महाकाव्य का शीर्षक पूछा जाये तो हर एक आदमी “रामायण /महाभारत” का नाम लेगा । अगर किसी कथा के बारे में शीर्षक पूछा जाये तो “गोदान” का नाम स्वत: मन में आता है ,अगर हिन्दी चलचित्र का नाम लिया जाये तो “शोले” का नाम लिया जायेगा ।लेकिन अगर कभी मेरी पीढी के लोगो से किसी चुटक़ुले का शीर्षक पूछा जायेगा तो मेरे पास और मेरे जैसे 25-26 साल के लड़्के पास एक जबाब जरूर होगा --”ळिब्राहन कमीशन”।

ये 1991-92 की बात है ,मै कक्षा 5 में पढता था । मेरे ऊपर उस समय का कुछ ज्यादा प्रभाव पड़ा या नही ये मै नही जानता लेकिन हमारे स्कूल 2 महीने से भी ज्यादा समय तक बंद रहे ।इसलिए मै तो खुश था ।

घर के ही पास में एक मुस्लिम परिवार का फलों का गोदाम था । इस गोदाम की जमीन के मालिक चौहान अंकल थे और हम उन्ही के घर पर हम किरायेदार । भारत की आम जनता ऐसे ही रहती है या यूँ कहे कि गुजारा करती है ।


खैर बाल-मन स्कूल की छुट्टियों से कुछ हद तक खुश था उसका दूसरा कारण यह था कि केले सड़ ना जाये, इसलिए ठेले वाले अनवर भाई पूरे गोदाम की चाबियां हम बच्चों को दे गये थे और कह गये कि केले पकते जायें तो खाते जाना। जिस समय पूरा देश अयोध्या की आग में जल रहा था उस समय अनवर को अपने फलों के खराब होने की चिंता ....और उस पर भी वह कर्फ्यू के समय हिन्दू चौहानों को अपने गोदाम की चाभी देने आये । शायद उसको उसके तथाकथित धर्म का अल्पज्ञान रहा होगा ।

बिजनौर जिले का धामपुर शहर ,जैतरा गांव को रेलवे ट्रैक के द्वारा विभाजित करता है । अक्सर उन दंगो में मै पुलिस की सायरन और Announcement सुनता था ,जो यह कहता था कि दरवाजों या खिड़्कियों से ना झांके वरना देखते ही गोली मार दी जायेगी । मुझे उस समय थोड़ा डर लगता था क्योंकि कई बार मेरे “पापा और अंकल” ,दरवाजे ,खिड़्की या छ्त पर ही होते थे ।

बाद में कुछ दिनो बाद जब स्कूल खुला तब मेरे कुछ दोस्त बताते थे कि उन्होने इंसानों को कटते हुए देखा । उनके चेहरे का बनावटी भय मुझे अभी तक याद है, लेकिन उन दंगो का वास्तविक दुख झेले बच्चे किस अवस्था से गुजरें होंगे शायद मै और आप उसे महसूस करने से भयभीत हों ।

मेरे बचपन के दिन सरस्वती विधा मंदिर में और सांयकाल खाकी वर्दी पहन कर “ नमस्ते सदा वतस्ले मातृभूमे” कहते हुए संघ की शाखाओं में बीती । मुझे हिन्दू धर्म की सभी रीति रिवाज का अनुसरण करने ,प्रात: स्मरण,एकात्मता स्त्रोत्रम ,गीता श्लोक ,मंगल-व्रत करने और ध्वज प्रणाम में आंतरिक आनंद और शांति की अनुभूति होती है परंतु इन सबके बाबजूद किसी भी अन्य धर्म की पवित्र स्थान पर हथौड़ा नहीं चला सकता वो भी इस आधार पर कि भूतकाल में वहाँ मेरा मंदिर था । ऐसा इसलिए नहीं कि मै कायर हूँ बल्कि इसलिए क्योंकि अगर मै ऐसा करता हूँ तो मै स्वयं ही अपने ईश्वर की सर्वव्यापकता पर प्रश्न करता हूँ । दोनों ही धर्मों की हठधर्मिता ने कई लोगों को मानव धर्म से दूर किया ही साथ ही विश्व पटल पर उन लोगों को बोलने का मौका दे दिया जो 1947 में यह कहकर गये कि इतने सारे धर्म, जाति ,और संस्कृति कभी भी शांति से नहीं रह पायेगी और भारत के बच्चे भी पश्चिम एशिया( गाजा,फिलस्तीन,सीरिया,इजराईल) के बच्चों की तरह बारूद पर जन्म लेंगे ।

राष्ट्र ,धर्म, मानव और भूमंडल ,मुझे इन शब्दों में विरोधाभास नही लगता जब तक मै इनको किताबों में पढता हूँ ,परंतु यही शब्द वास्तव में आज के मानव समाज में घोर विरोधी हैं ।

6 दिसम्बर को मस्जिद गिरने के बाद 16 दिसम्बर 1992 को लिब्राहन कमीशन बनाया गया और लगभग 17 साल बाद अर्थात 8 दिसम्बर 2009 को सदन में इस रिपोर्ट को रखा गया ।सरकार के आंकडो में सिर्फ इस रिपोर्ट पर 80 मिलियन (8 करोड़ रूपये ) खर्च कर दिये गये । आज जब भारतीय लोग विशेषकर अल्पसंख्यक बुद्दिजीवी तमाम MNC’s में कार्य करने लगें है, कई बडे विश्वविद्यालयों मे वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं ,उनको रह रह कर 17 सालों के बाद इन कमेटियों और राज़नीतिज्ञों द्वारा यह याद दिलाने की कोशिश की जाती है कि उनके धर्मस्थल पर 17 साल पहले सम्पूर्ण हिन्दू समाज नें हमला किया था । ऐसा कहकर वो अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की बेहतरीन राजनीति करते हैं ।

दूसरी ओर भगवा लपेटी ,रथ यात्रा में सम्मलित पार्टियां है जो सदन में खड़े होकर 1992 की घटना को जन-आंदोलन का नाम देती है और उनके कई लोग इसकी तुलना असहयोग आंदोलन तक से कर डालते हैं ।

हर देश में धार्मिक ,जातीय या भाषायी अल्पसंख्यको को कभी न कभी यह लगता है कि उनकी संख्या कम होने के कारण उनके सामाजिक या सांस्कृतिक हितों को हानि पहुंचायी जा सकती है लेकिन बहुसंख्यक संप्रदाय ने जब भी अपने वचन और कर्म से यह सिद्द किया कि ये भय निराधार है तो अल्पसंख्यको का भय स्वंय समाप्त हो जाता है परंतु जब बहुसंख्यक जनता का कोई भाग सांप्रदायिक और संकीर्ण हो जाता है और अल्पसंख्यको के खिलाप बोलने या कुछ करने लगता है तो अल्पसंख्यक वर्ग अपने को असुरक्षित महसूस करने लगता है और तब अल्पसंख्यको का सांप्रदायिक और संकीर्ण नेतृत्व भी मजबूत हो जाता है । इतिहास में इसका उदाहरण बहुत साफ है आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग वहीं मजबूत थी जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक थे ,इसके विपरीत पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत ,पंजाब,सिंध ,और बंगाल जहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक थे और अपने को सुरक्षित महसूस करते थे मुस्लिम लीग अपेक्षाकृत कमजोर थी ।(Ref-हिस्ट्री आफ माडर्न इंडिया-विपिन चंद्र)

कुल मिलाकर यदि कोई राजनीतिक दल यह समझ रहें है कि राम–राम या अली-अली चिल्ला कर वह फिर से हमें गुमराह कर लेंगे तो शायद अब थोड़ा मुश्किल है । डार्विन बहुत पहले सिद्द कर चुके है कि ऐसा कोई जरूरी नहीं कि पहलवान का बच्चा पहलवान ही हो । लेकिन यह साफ है कि आने वाली पीढी पहले से राजनीतिक समझ में बेहतर हैं । अत: पुरानी हो चुकी दुमई (सांप की प्रजाति जो काटती नहीं बल्कि चिपक जाती है) को सिर्फ सोने दें । अन्यथा फिर से नमक डालना पडेगा, मनुष्यों का दही चढाना होगा और इस प्रक्रम का फायदा विषैले सर्प लेंगे जो विष की जगह सत्ता-पिपासु हैं ।

Tuesday, October 20, 2009

माँ ....तुझमे और उसमे बहुत अंतर था ।

माँ !
तुझमे और उसमे
बहुत अंतर था ॥


तुम्हारी सूखी हुई ,
दुबली हडिइया भी
कभी चुभी नहीं मुझे ,
बल्कि मर्मस्पर्शी
प्रेम में लिपटी हुई लगी ॥



तुम्हारा मुझे
वो नंगे पांव
धूप मे खड़ा कर देना
कभी रूला नहीं पाया मुझे
क्योंकि
उसके बाद
लिपटा लेती थी तुम मुझको गले से ॥



और तुम्हारा
रोज रात को पापा से
झगड़ जाना
मेरे वर्तमान और भविष्य के लिए।
मुझे सजाता रहा
और इंसान बनाता रहा ।



लेकिन वो
फूल से दिखनी वाली
जो खुद तू मेरे लिए
लेकर आई
चुभो गई अपने सारे
अस्त्र ......



और अब मै असहाय
रक्त से लथ-पथ
मरूभूमि में पड़ा
ढूंढ्ता हूँ फिर तुझे
ओ माँ ॥

Friday, September 25, 2009

एक कहानी .....सूखा समंदर

24 सित.2007 ,कहानी की शुरूवात यहीं से होती है । खूब जोरों का शोर ,डाइनिंग रूम ...दोस्तों से भरा हुआ ,कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतलें तथा चाय की खाली हुई कपें। चंदर को शायद आज भी याद होगा कि 20-20 के उस क्रिकेट मैच का , भारत की जीत उस दिन सिर्फ भारत की जीत नहीं थी ।चंदर का पूरा ग्रुप जीता ,इतनी खुशी की सब एक दूसरे के गले मिले । कमल ,दीपक , आलम और रंजीत सब एक दूसरे के गले मिल गये ।


कालेज में होते तो माहौल “भारत माता” की जयकारों से गूंज गया होता ।आकाश में उड़ रहे बादलों की गर्जना को चुनौती दे दी गई होती । अनायास ही कुछ दोस्तों को गोद में उठा लिया गया होता और कुछ बेचारे GPL (बिना मतलब की मार) का शिकार बन गये होते ........लेकिन ये सभ्य लोगों की सोसाइटी थी ।चन्दर को कालेज से निकलकर JOB करने का सिर्फ 2 सालों का अनुभव था ....।


“यार यहां कुछ नही .....हम बाहर खुशिंया मनाते है।“ ...कमल ने सलाह दी ”हां यारो चलो” ” .....कहीं पटाखे मिले” ...तो मजा आ जाये ।
भारत की क्रिकॆट में जीत ....और वो भी पकिस्तान पर । भारतवासियों को इससे ज्यादा खुशी किसी में नही मिलती । और फिर मैच भी रोंमाच की हद था ।


दिल कितना कमजोर होता है ,आशा करता है कि जो सोचा है वही होगा । फिर जिंदगी की पारी शुरू होती है नया ओवर , नई अपेक्षायें, और बाजी मार लेने का जुनून ..कभी जिंदगी के इस कशमकश में गिल्लियां बिखर जाती है तो कभी स्थाइत्व और रनों से भरा हुआ ओवर मिल जाता है ..और अंत होता है हार या जीत से । सबको इंतजार होता है कि इस अंतिम ओवर का ......


शायद उन अपनो को भी ....जो कहते है कि क्रिकेट का यह मैच खत्म ना हो ...।

और फिर एक स्तव्ध सन्नाटा । सब स्टेडियम छोड़ जाते है रह जाते है तो सुलगते पटाखे ...खाली पडी सीटें और कुछ उड़्ते हुए गिद्द ,कौवे ...शायद इनको अंत में से कुछ लेने का हक विधाता ने लिखा है ।


और चंदर यही सोचता हुआ निकल पड़ा ..आज जीत हुई है और देश की इस जीत को उसने अपनी जिंदगी की जीत बना लेने का सपना देख लिया । यह दिन एक याद बन जाये बस ,एक खुशी की याद ....इसीलिए उसके हाथों ने अचानक मोबाइल में ऋचा का नम्बर ढूंढना शुरू कर दिया ।

......आगे की कहानी के लिए प्रतीक्षा

Friday, August 28, 2009

बुद्दिजीवी मनुष्य बनाम बुद्दिहीन भेढ

कुछ टूटी फूटी
टेढ़ी-मेढी सड़कें
उन्ही सड़्कों पर
जमीं हुई
तपती हुई
झुलसती हुई
चंद भेंढें
उन्ही भेढों से
निकाली जाने वाली
मखमली सी ऊन
और उसी "मखमली"
ऊन से बनी सजी
सदर के नायब
की टोपी .....॥


और ऐसी ही न जाने
कितनी अनगिनत
सी टोपियाँ ॥
नायब की टोपी में
शान है
क्योंकि इनमें
अनगिनत भेड़ो का
बलिदान है ॥

दोस्तो
भूगोल की किताब का
पन्ना नम्बर 4
फिर से कुछ टूटी फूटी
टेढी-मेढी रेखायें
उन्ही रेखाओं पर
जमें हुए
खढॆ हुए
तपते हुए
झुलसते हुए
लोग
उन्ही लोगों की
नशों से बहा कुछ
रक्त,
और उसी रक्त
से सजा हुआ
चमचमाता हुआ
ये देश ।

और ऐसे ही न जाने
कितने अनगिनत
से देश ॥
इन देशों मे
जान है
शान है
क्योंकि इनमें भी
भेढों बकरियों का
बलिदान है ॥

Saturday, July 04, 2009

हमने जब भी कुछ लिखा

जाने कितने कवियों ने कवितायें लिखी;
जाने कितने कागज पर रचनायें घुटीं।
जाने कितने शब्दों की स्वरलहरी;
बन प्रपात झरने सी झर कर चली गई।

फिर भी अंजान ,अद्र्श्य !
मानव की वाहवाही में
हम खुश हो जाते,या झूठी चंद प्रशंशा में
खुद हंस कर सारे गम को सह जाते!

जब-2 जली सुहागन चंद नोटों या सिक्कों पर
तब हमनें एक रचना रच डाली ;
जब -2 बच्चे के भूखे पर आंख पडी!
कवि को मिली खुशी ;चलो एक रचना फिर मथ डाली!

एक अभागिन जब लाज वसन थी बेच रही!
हम बता कहानी उसकी;तालियां जुटाते थे!
एक भिखारिन मन्दिर के एक कोने पर खडी रही;
हम खुश होकर कविता उस पर कह जाते थे!

क्या तुझे पता नही कवि !
तू किन्हे सुनाता अपनी ये कविताये!
ये धूर्त, कुतर के स्वामी!
जनता तेरी कवितायों पर बस खुश होती है!
तुझ पर नही !
"गरीबी ,लाचारी" पर बेखौफ तालियां पिटती है!

सौ साल पूर्व लिख दी थी एक ऐसी रचना!
जिसमें भी बच्चा भूखे पेट सोता था!!
वह "क्रांतियुग" से भी पहले का था युग जिसमें!
कवि "स्र्त्री" को "देवी" का रुपक कह्ता था!

तब बन जाते थे ऐसे ही कवि!
दरबारों के "नवरत्न" प्रिय!
अब "राष्ट्रकवि" बन जाते हैं
फूल मालाऎं मिल जाती हैं।

पर लौट के फिर जब जाता है उस मदिंर में
तो वही भिखारिन त्रश होकर आंख मिलाती है!
मासूम सा बच्चा ,लिये हथौडा !
पत्थर ! और तेजी से तोडता जाता है!!!!

बस यूंही अनायास .......

पहले मैं जब सुबह उठता था

सूरज की किरणों

को पानी से धोने का

प्रयास देखता था।



हरी कोपलों पर

खुद को समेंटें हुए ओस की बूंदे

देखता था ॥



नई-2 कोपलों को

पीले हुए पत्तों के सामने

अठखेलियाँ करते हुए भी देखा ॥



समीर, जो ठंडे हुए ..

पर्वतों से आकर मेरे कानों में

कुछ फुसफुसाती थी ॥



और कुछ रंगबिरंगे फूलो पर

अदभुत सी तितलियों

को ठहरते देखा ॥



तुमको अचरज होगा ,कि मेरे

घर के आंगन में कभी मोर

कभी कोयल तो कभी सफेद

बगुले आते थे

सूखे पडे धान को चुनने ॥


और मै बालहठ में

उन्हे पकडने की नाकाम कोशिश करता ॥


अब,

न आंगन है ,न तितली हैं

न कोपल हैं ,न पीले हरे पत्ते

बस उनकी कुछ तस्वीरें,

जो बाजार में मिलती हैं

मैने अपने घर की दीवार पर

सजाने को लगा रखी हैं ॥

Sunday, January 11, 2009

भारत:-एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र ?

अब तक के सारे समाज का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है।स्वतंत्रजन और दास,कुलीन और सामान्य जन,जमींदार और किसान,ठेकेदार और मिस्त्री-संक्षेप में,जालिम और मजलूम-निरंतर एक दूसरे के दुश्मन रहे हैं।वे कभी चोरी छिपे तो कभी खुले-आम लगातार आपस में लड़्ते रहें हैं,और इस ळडाई का अंत हर बार या तो सारे समाज के क्रांतिकारी पुनर्निमार्ण में हुआ ,या फिर दोनों संघर्षरत वर्गों के विनाश के रूप में सामने आया। सामजिक इतिहास का प्रत्येक अध्याय साक्षी है कि राजनीतिक सत्ता सदैव प्रभुत्वशाली वर्ग के हाथों मे रही है जिसने दूसरे वर्ग को पराधीन बनाकर उस पर निरंतर अत्याचार किए।इस तरह राज्य उत्पीड़्न का साधन मात्र रहा है ।

जब समाज में राजनीति के प्रजातात्रिक दृष्टिकोंण का उदभव हुआ होगा तब इसकी कल्पना करने वालों ने नैतिक मूल्यों और सभी विरोधाभाषी सैद्दांतिक दृष्टिकोण के मूल्यों को समझने की कोशिश की होगी ।इस प्रकार एक ऐसे संविधान की रचना की गई जिसमें मनुष्य (प्रजा) को अधिकार प्रदान किए गये।भारत के संविधान का अवलोकन करने पर हम पाते है कि मूल अधिकारों में वाक्य और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता (अनु-19(1)-क) को मुख्य स्थान दिया गया है साथ ही इस बात को प्रमुखता के साथ रखा गया है कि किसी भी परिस्थिति में राज्य (सरकार) का यह दायित्व है कि संविधान के इन विचारों का पालन कराया जाये और स्वयं भी किया जाये।

विगत वर्षों में भारत सरकार का हर दृश्टिक़ोण; किसी भी प्रजातांत्रिक समझ रखने वालों की समझ के परे है।प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ अर्थात प्रेस TRP और अंधी भौतिकवादी दौडों मे शामिल हो चुका है।यथार्थ को जायकेदार,मशालेदार बनाकर जनता के सामने बिना सच या झूठ को सामने रखे,सिर्फ जनता के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर परोसा जा रहा है । पिछ्ले कुछ समय में भारत में हुई कुछ मुख्य घटनायें इस प्रकार

Ø सरकारी कर्मचारियों (IAS) के लिए छ्ठे वेतन आयोग की सिफारिशे बिना किसी शर्त के मान्य।
Ø IPS,सैनिकों द्वारा वेतन आयोग का विरोध ,विरोध का कारण रक्षा को कार्मिक क्षेत्र से कम वरीयता।
Ø 26/11 मुम्बई पर आतंकियो का हमला ।अदम्य साहस के साथ रक्षा कर्मियों ने देश की सुरक्षा की ।
Ø मुम्बई पर आतंकियो का हमला ।अदम्य साहस के साथ रक्षा कर्मियों ने देश की सुरक्षा की ।
Ø मीडिया का सरकार द्वारा उपयोग।
Ø हमले के बाद आम भारतीयों का देश के प्रति समर्पित होना ।
Ø अचानक सैनिकों की मह्त्ता सरकार द्वारा समझना, सैनिकों की वेतन संवधी मांगे पूरी ।
Ø कुछ भारतीय कम्पनियों द्वारा 2 वर्षों से प्रस्तावित हड्ताल आदि का वापस लेना ।
Ø सरकार के कुछ मंत्रियो का गैर-जिम्मेदार बयान--अंतुले प्रकरण ।
Ø नववर्ष का प्रारंभ, प्रधानमंत्री का हर प्रकार से 7% विकास दर कायम रखने का वादा ।
Ø IAS,IPS और ARMY के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की मागें।
Ø 12 वर्षो के बाद वेतन आयोग को लेकर 7-जनवरी को प्रस्तावित तेल उपक्रमों की हड्ताल का प्रारम्भ ।
Ø सरकार का 2 दिनों तक कोई विशेष ध्यान न देना।
Ø अचानक मीडिया का सरकार द्वारा भरपूर प्रयोग ।
Ø जनता के सामने सरकारी उपक्र्मों की अलग प्रकार की छवि को रखना ।
Ø दमनकारी नीति द्वारा मांगो को समाप्त कराना ।
Ø Transporters द्वारा हडताल पर जाना। 7-10 दिनो तक सरकार विफल,किसी भी प्रकार का Alternate Solution न होना ।
Ø सत्यम-Private Firm द्वारा के लाखों लोगो के पैसे के साथ खिलवाड।

ऊपर की समस्त घटनायें के विफल सरकार की कहानी प्रस्तुत करने के लिए काफी हैं।लेकिन मै विशेष रूप से Oil sector की हड़्ताल,प्रजा और राजनीतिक रूप से प्रजात्तंत्रिक रूप की सरकार पर आप लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा ।विचारो को सामने रखने से पहले मै बता देना चाहता हूँ कि यह शासन 4 पीढी के गांधी-नेहरू परिवार का ही है ।26 वर्ष की अवस्था में मुझे नही पता कि प्रजातंत्र और परिवारवादी शासन तंत्र में कितना अंतर है।मैने विश्वशनीय किताबों मे पढा है कि भारत एक प्र्जातांत्रिक देश है इसीलिए मै ऐसा मानता भी हूँ।

इसी प्रजातांत्रिक देश ने नेहरू के सपनों के आधार पर कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम खोले । यह उपक्रम सर्वजन के लिए है और इन्ही में से कुछ को इनकी कार्य गुणवत्ता के आधार पर नवरत्न घोषित किया गया । मै आपको बताना चाहूंगा कि ये सरकारी बाबू लोगों की संस्थायें नही है ।इनमे ONGC,NTPC,GAIL,IOCL ,BPCL जैसी कम्पनियां है जिनको कार्य गुणवत्ता के आधार पर Fotune -500 में भी रखा गया है ।इनमें वो कम्पनियां है जिनके अधिकांश कर्मचारी IIM,IIT या REC की शिक्षा प्राप्त करके बीना,भटिंडा,बडौत,उंचाहार जैसी जगहों पर रहकर नये भारत को बुलंदियो तक पहुंचाने का न केवल स्पप्न देख रहे हैं बल्कि उसका वास्तविक क्रियान्वयन भी कर रहे हैं। इनमें वो कम्पनियां भी है जिनकेकर्मचारी सिर्फ सरकारी नीतियों के कारण न तो Profit कर सकती है न ही Profit sharing ,इनमें वो लोग भी है जिनमें मंजूनाथ जैसे लोग आतेहै और तथाकथित प्रजातांत्रिक सरकार के द्वारा अपना जीवन शहीद कर देते हैं ।

कुल मिलाकर वर्तमान में इन IIM,IIT,REC स्तर के कर्मचारी इनमें आते ही इनको छोड देने का विचार रखते हैं । इनके वास्तविक कारण इस प्रकार है जिनसे बहुत भिन्न कारण मीडिया या सरकारी तंत्र द्वारा आप तक पहूंचे होंगे
o प्रारंभिक स्तर पर सबसे उच्च Basic salary 12000 प्रति माह है ।
o प्रारंभिक स्तर सबसे अछ्छा Gross CTC -26000 है झूठे सरकारी /स्व्प्नलुप्त मीडिया आंकडो के हिसाब से यह 1 लाख है।
o CMD /Director स्तर पर Gross CTC -60000 है झूठे सरकारी /स्व्प्नलुप्त मीडिया आंकडो के हिसाब से यह 3 लाख है।
o पिछ्ले 12 वर्षो में किसी भी प्रकार की कोई वेतन बढोत्तरी नहीं ।
o 1997 वेतन आयोग के बाद आयोग को 10 वर्षो के स्थान पर 5 वर्ष करने की सिफारिश।
o 10 वर्ष बीत जाने पर भी सरकार द्वारा कोई Action नहीं।
o मंत्री,कैविनेट,सचिव स्तर की वेतन बढोत्तरी समय से पूर्व परंतु कर्मचारी वर्ग उपेक्षित।
o हड्ताल से पूर्व कई बार Union द्वारा चेतावनी परंतु सरकार द्वारा जानबूझकर उपेक्षित करना।
o सरकार द्वारा ह्ड्ताल की जिम्मेदारी न लेना।
o कर्मचारियों के बीच भ्रम की स्थति पैदा करना
o Transparent तरीके द्वारा भावी वेतनमान को न प्रकट करना।
o आतंरिक राजनीति में Negotiaons के स्थान पर Authoritative.
o बाह्य राजनीति में Authoritative के स्थान पर Negotiative.
o मीडेया का हर प्रकार से सामंतवादी प्रयोग

भविष्य:-

सरकारी दमन नीति से भारतीय नवरत्न कंपनियों मे रोष व्याप्त है । निश्चित रूप से इस हड्ताल को बिना शर्त समाप्त कराने के कई और प्रकार हो सकते थे परंतु राजनीतिक सुप्तता और इछ्छाशक्ति के अभाव से दमनकारी नीति को सबसे ऊपर का स्थान दिया ।जनता के बीच तेल कम्पनियों के अधिकारियों और रिफाइनिरी कर्मचारियो को मीडिया के माध्यम से देशद्रोही बताया गया।इन परिस्थितियों मे "नवरत्न" जैसे शब्द बेमानी हैं। मीडिया के एक तबके ने इनके निजीकरण (Privatization) पर जोर देना शुरू कर दिया है।यहाँ यह बताना आवश्यक है कि पैसे का यही ध्रुवीकरण "सत्यम-Scam" जैसी घटनाओं को जन्म देता है । कांग्रेस का यह Globalization phenomenon सामाजिक स्तर पर आत्मघाती ही सिद्द होगा।

एक अपील भारतीय जन मानस से:-

हड्ताल का कोई भी स्वरूप गलत है परंतु इस बात को ध्यान में रख्नना चाहिये कि
· किन कारणों से एक अत्यंत शिक्षित वर्ग उस ओर गया ?
· स्वायत्त नवरत्न कंपनियो के वेतन संवधी निर्णय सरकार द्वारा क्यों लिए जाते हैं?
· वेतन संवधी निर्णय हमेशा सरकार के अतिंम वर्ष में क्यों लिए जाते हैं?
· जिस प्रकार से सरकार ने जनता की सूचना हेतु तेल क्षेत्र के कर्मचारियों का वेतन विज्ञापनों द्वारा बताया है उसी आधार पर सर्वजन सूचना हेतु संसदीय मंत्रियो और सरकारी बाबुओं का वेतन प्रसारित करे?
· किन कारणों से सरकार आतंरिक राजनीति में Authoritative है जबकि पाकिस्तान जैसे देशो के साथ Negotiation राजनीति कर रही है ?
· क्या भारत जैसे देश में Options की कमी के कारण लोग वोट न देने पर बाध्य नहीं है ?

अतिंम विचार:-

प्रजातंत्र पर सिर्फ आतंक ही एक मात्र हमला नहीं है। एक विशेष प्रकार का तंत्र जो की पूर्णतया निरंकुश हो गया है और सत्ता जिसके हाथ में चली गई है राष्ट्र को पंगु बनाने में लगा है। भारत के सरकारी या गैर सरकारी उपक्रमों को उनके कर्मचारियों के माध्यम से मजबूत बनाना ही होगा । जब तक समाज परस्पर विरोधी वर्गों में बंटा रहेगा ,तब तक राज्य और राजनीति प्रभुत्वशाली हाथों मे रहेंगे और इनका प्रयोग पराधीन वर्ग के दमन के रूप में किया जाता रहेगा।

जो भी सरकार पूंजीवादियों के साथ मिलकर कार्य करती है वह इसी प्रकार का शोषण करती है और जनता के सम्मुख उसे नैतिक सिद्द करने का षणयंत्र रचा जाता है । भावुक और परेशान जनता भी ऐसे समय में सरकारी उपक्रमों को बिना जाने पूंजीवादी हाथों मे जाने का समर्थन करते हैं। डा गावा के विचारों मे यह एक सतत चलने वाला चक्रीय प्रक्रम है।बस देर इस बात की है कि देश का युवा वर्ग इसे कितने समय में समझ पाता है।

दमन हमेशा होने बाला प्रक्रम है । डार्विन के सिद्दांन मे भी बताया गया है कि Fittest will be the ultimate survival. पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीवादी कामगारों का शोषण करते हैं । सांमतवादी व्यवस्था में सरकारी तंत्र सभी का (वर्तमान भारतीय व्यवस्था सही रूप में इन्ही 2 का मिलन है) जबकि समाजवाद में कामगार मिलकर पूंजीपतियों का दमन करते हैं। परंतु जहाँ पूंजीवाद में निहित स्वार्थ के कारण वर्ग व्यवस्था ,राज्य और ओछी राजनीति कायम रहती है वहीं कामगारों ,कर्मचारियों की समाजवादी व्यवस्था में ऐसा कोई लालच नहीं होता है ।

भारतीय जनता को अब यह साफ करना ही होगा कि राष्ट्र का कौन सा स्वरूप सर्वोत्तम है।

अंत मे कहना चाहूंगा .....

”युवा दिल हूँ ,जवाँ दिलो को यह अभिमंत्रण देता हूँ ,
अन्यायों पर मुखर क्रांति का खुला निमंत्रण देता हूँ ।“