Wednesday, December 16, 2009

पुराना लेकिन ताजा विचार

भारत में अगर किसी महाकाव्य का शीर्षक पूछा जाये तो हर एक आदमी “रामायण /महाभारत” का नाम लेगा । अगर किसी कथा के बारे में शीर्षक पूछा जाये तो “गोदान” का नाम स्वत: मन में आता है ,अगर हिन्दी चलचित्र का नाम लिया जाये तो “शोले” का नाम लिया जायेगा ।लेकिन अगर कभी मेरी पीढी के लोगो से किसी चुटक़ुले का शीर्षक पूछा जायेगा तो मेरे पास और मेरे जैसे 25-26 साल के लड़्के पास एक जबाब जरूर होगा --”ळिब्राहन कमीशन”।

ये 1991-92 की बात है ,मै कक्षा 5 में पढता था । मेरे ऊपर उस समय का कुछ ज्यादा प्रभाव पड़ा या नही ये मै नही जानता लेकिन हमारे स्कूल 2 महीने से भी ज्यादा समय तक बंद रहे ।इसलिए मै तो खुश था ।

घर के ही पास में एक मुस्लिम परिवार का फलों का गोदाम था । इस गोदाम की जमीन के मालिक चौहान अंकल थे और हम उन्ही के घर पर हम किरायेदार । भारत की आम जनता ऐसे ही रहती है या यूँ कहे कि गुजारा करती है ।


खैर बाल-मन स्कूल की छुट्टियों से कुछ हद तक खुश था उसका दूसरा कारण यह था कि केले सड़ ना जाये, इसलिए ठेले वाले अनवर भाई पूरे गोदाम की चाबियां हम बच्चों को दे गये थे और कह गये कि केले पकते जायें तो खाते जाना। जिस समय पूरा देश अयोध्या की आग में जल रहा था उस समय अनवर को अपने फलों के खराब होने की चिंता ....और उस पर भी वह कर्फ्यू के समय हिन्दू चौहानों को अपने गोदाम की चाभी देने आये । शायद उसको उसके तथाकथित धर्म का अल्पज्ञान रहा होगा ।

बिजनौर जिले का धामपुर शहर ,जैतरा गांव को रेलवे ट्रैक के द्वारा विभाजित करता है । अक्सर उन दंगो में मै पुलिस की सायरन और Announcement सुनता था ,जो यह कहता था कि दरवाजों या खिड़्कियों से ना झांके वरना देखते ही गोली मार दी जायेगी । मुझे उस समय थोड़ा डर लगता था क्योंकि कई बार मेरे “पापा और अंकल” ,दरवाजे ,खिड़्की या छ्त पर ही होते थे ।

बाद में कुछ दिनो बाद जब स्कूल खुला तब मेरे कुछ दोस्त बताते थे कि उन्होने इंसानों को कटते हुए देखा । उनके चेहरे का बनावटी भय मुझे अभी तक याद है, लेकिन उन दंगो का वास्तविक दुख झेले बच्चे किस अवस्था से गुजरें होंगे शायद मै और आप उसे महसूस करने से भयभीत हों ।

मेरे बचपन के दिन सरस्वती विधा मंदिर में और सांयकाल खाकी वर्दी पहन कर “ नमस्ते सदा वतस्ले मातृभूमे” कहते हुए संघ की शाखाओं में बीती । मुझे हिन्दू धर्म की सभी रीति रिवाज का अनुसरण करने ,प्रात: स्मरण,एकात्मता स्त्रोत्रम ,गीता श्लोक ,मंगल-व्रत करने और ध्वज प्रणाम में आंतरिक आनंद और शांति की अनुभूति होती है परंतु इन सबके बाबजूद किसी भी अन्य धर्म की पवित्र स्थान पर हथौड़ा नहीं चला सकता वो भी इस आधार पर कि भूतकाल में वहाँ मेरा मंदिर था । ऐसा इसलिए नहीं कि मै कायर हूँ बल्कि इसलिए क्योंकि अगर मै ऐसा करता हूँ तो मै स्वयं ही अपने ईश्वर की सर्वव्यापकता पर प्रश्न करता हूँ । दोनों ही धर्मों की हठधर्मिता ने कई लोगों को मानव धर्म से दूर किया ही साथ ही विश्व पटल पर उन लोगों को बोलने का मौका दे दिया जो 1947 में यह कहकर गये कि इतने सारे धर्म, जाति ,और संस्कृति कभी भी शांति से नहीं रह पायेगी और भारत के बच्चे भी पश्चिम एशिया( गाजा,फिलस्तीन,सीरिया,इजराईल) के बच्चों की तरह बारूद पर जन्म लेंगे ।

राष्ट्र ,धर्म, मानव और भूमंडल ,मुझे इन शब्दों में विरोधाभास नही लगता जब तक मै इनको किताबों में पढता हूँ ,परंतु यही शब्द वास्तव में आज के मानव समाज में घोर विरोधी हैं ।

6 दिसम्बर को मस्जिद गिरने के बाद 16 दिसम्बर 1992 को लिब्राहन कमीशन बनाया गया और लगभग 17 साल बाद अर्थात 8 दिसम्बर 2009 को सदन में इस रिपोर्ट को रखा गया ।सरकार के आंकडो में सिर्फ इस रिपोर्ट पर 80 मिलियन (8 करोड़ रूपये ) खर्च कर दिये गये । आज जब भारतीय लोग विशेषकर अल्पसंख्यक बुद्दिजीवी तमाम MNC’s में कार्य करने लगें है, कई बडे विश्वविद्यालयों मे वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं ,उनको रह रह कर 17 सालों के बाद इन कमेटियों और राज़नीतिज्ञों द्वारा यह याद दिलाने की कोशिश की जाती है कि उनके धर्मस्थल पर 17 साल पहले सम्पूर्ण हिन्दू समाज नें हमला किया था । ऐसा कहकर वो अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की बेहतरीन राजनीति करते हैं ।

दूसरी ओर भगवा लपेटी ,रथ यात्रा में सम्मलित पार्टियां है जो सदन में खड़े होकर 1992 की घटना को जन-आंदोलन का नाम देती है और उनके कई लोग इसकी तुलना असहयोग आंदोलन तक से कर डालते हैं ।

हर देश में धार्मिक ,जातीय या भाषायी अल्पसंख्यको को कभी न कभी यह लगता है कि उनकी संख्या कम होने के कारण उनके सामाजिक या सांस्कृतिक हितों को हानि पहुंचायी जा सकती है लेकिन बहुसंख्यक संप्रदाय ने जब भी अपने वचन और कर्म से यह सिद्द किया कि ये भय निराधार है तो अल्पसंख्यको का भय स्वंय समाप्त हो जाता है परंतु जब बहुसंख्यक जनता का कोई भाग सांप्रदायिक और संकीर्ण हो जाता है और अल्पसंख्यको के खिलाप बोलने या कुछ करने लगता है तो अल्पसंख्यक वर्ग अपने को असुरक्षित महसूस करने लगता है और तब अल्पसंख्यको का सांप्रदायिक और संकीर्ण नेतृत्व भी मजबूत हो जाता है । इतिहास में इसका उदाहरण बहुत साफ है आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग वहीं मजबूत थी जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक थे ,इसके विपरीत पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत ,पंजाब,सिंध ,और बंगाल जहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक थे और अपने को सुरक्षित महसूस करते थे मुस्लिम लीग अपेक्षाकृत कमजोर थी ।(Ref-हिस्ट्री आफ माडर्न इंडिया-विपिन चंद्र)

कुल मिलाकर यदि कोई राजनीतिक दल यह समझ रहें है कि राम–राम या अली-अली चिल्ला कर वह फिर से हमें गुमराह कर लेंगे तो शायद अब थोड़ा मुश्किल है । डार्विन बहुत पहले सिद्द कर चुके है कि ऐसा कोई जरूरी नहीं कि पहलवान का बच्चा पहलवान ही हो । लेकिन यह साफ है कि आने वाली पीढी पहले से राजनीतिक समझ में बेहतर हैं । अत: पुरानी हो चुकी दुमई (सांप की प्रजाति जो काटती नहीं बल्कि चिपक जाती है) को सिर्फ सोने दें । अन्यथा फिर से नमक डालना पडेगा, मनुष्यों का दही चढाना होगा और इस प्रक्रम का फायदा विषैले सर्प लेंगे जो विष की जगह सत्ता-पिपासु हैं ।

1 comment:

Anonymous said...

nnice article sir