नया है !
या पुराने को ही
फिर से सिल दिया ।
और
लगा दिये कुछ
और अस्तर।
पहले इस ठंड में हल्के
पानी की कुछ बूंदे छिड़्की
और फिर
घुमा दी गर्म करके
इस्तरी ॥
यूंही अक्सर
प्रेस करके छुपा देते हो ,
और गुमराह
करते हो , नया कह देते हो ,
365 दिनों के बाद उसी पुराने को ॥
ये
कुछ दैत्य रूपी क़ाटें ,
जो खाकी वर्दी में छुपकर
चीर कर रख देते हैं हमारे नये कपड़े ॥
और फिर
तुम गुमराह करते हो
कभी
काले कोट वालों से
तो कभी
सफेद टोपी वालों से ॥
ध्यान दो
अब,
हमारी मूर्खता कुछ और दिन की है ॥
शाप और वनवास अवधि खत्म होनी है ॥
और बस .......
ये नींद का अंतिम प्रहर, बीत जाने दे जरा ॥
2 comments:
pata nahee kaise ise blog par aana hua aur padatee chalee gaee aur ye poem yanha sab thum gaya.......bahut sunder abhivyktee.................
thanks a lot mam...hope sumwhr we can build a better tomorrow ...
I wish ki इस तरह की कवितायें और भावनायें सदा के लिये दफन हो जायें ॥
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