Thursday, December 31, 2009

नींद का अंतिम प्रहर, बीत जाने दे जरा।

नया है !

या पुराने को ही

फिर से सिल दिया ।


और

लगा दिये कुछ

और अस्तर।

पहले इस ठंड में हल्के

पानी की कुछ बूंदे छिड़्की

और फिर

घुमा दी गर्म करके

इस्तरी ॥


यूंही अक्सर

प्रेस करके छुपा देते हो ,

और गुमराह

करते हो , नया कह देते हो ,

365 दिनों के बाद उसी पुराने को ॥


ये

कुछ दैत्य रूपी क़ाटें ,

जो खाकी वर्दी में छुपकर

चीर कर रख देते हैं हमारे नये कपड़े ॥


और फिर

तुम गुमराह करते हो

कभी

काले कोट वालों से

तो कभी

सफेद टोपी वालों से ॥


ध्यान दो

अब,

हमारी मूर्खता कुछ और दिन की है ॥

शाप और वनवास अवधि खत्म होनी है ॥


और बस .......

ये नींद का अंतिम प्रहर, बीत जाने दे जरा ॥

2 comments:

Apanatva said...

pata nahee kaise ise blog par aana hua aur padatee chalee gaee aur ye poem yanha sab thum gaya.......bahut sunder abhivyktee.................

pawan said...

thanks a lot mam...hope sumwhr we can build a better tomorrow ...

I wish ki इस तरह की कवितायें और भावनायें सदा के लिये दफन हो जायें ॥